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बैन शतक
इस अर्थ को जरा मूल छन्द से मिलाकर देखिये। मूल छन्द में तीन बार 'धिक' शब्द का प्रयोग हुआ है इसलिए अनुवादक ने लिख दिया सतीन बार धिक्कार है'; परन्तु यह नहीं सोचा कि 'धिक्' शब्द के साथ कवि ने हर बार 'है' क्रिया का प्रयोग क्यों किया है? क्या एक बार 'है' लिखने से काम नहीं चलता था?
अत: वास्तव में इसे इसप्रकार लिखना चाहिए कि 'जो मूर्ख वेश्या से प्रेम करते हैं उन्हें धिक्कार है, धिक्कार है, धिक्कार है' अथवा इसप्रकार लिखना चाहिए कि 'जो मूर्ख वेश्या से प्रेम करते हैं उन्हें बारम्बार धिक्कार है।' तीन बार लिखना बहुत बार का सूचक मानना चाहिए, क्योंकि तीन की संख्या एकवचन और द्विवचन की कोटि से निकलकर बहुवचन की कोटि में पहुँच जाती है। ___ अब आप छन्द-संख्या ५९ की अन्तिम पंक्ति और देख लीजिए। यहाँ कैसा अनर्थ हो रहा है ! पंक्ति है :'धनि जीवन है तिन जीवनि कौ, धनि माय उनैं उर मांय वहैं।'
इसका उचित अर्थ यह है कि 'धन्य है उन (शीलव्रत के धारक या सदाचारी) जीवों का जीवन और धन्य हैं वे माताएँ भी जिन्होंने उन जीवों को अपने उर (गर्भ) में धारण किया।'
किन्तु सूरतवाले संस्करण में छपा है कि 'उन्हीं का जीवन धन्य है और वे ही हृदय में धारण करने योग्य हैं।'
कितनी बड़ी भूल रह गई है ! ग्रन्थकार कवि तो सदाचारी पुरुषों की माताओं को भी धन्यवाद देना चाहते हैं, परन्तु अनुवादक ऐसा नहीं करते। पता नहीं क्यों?
इसीप्रकार से कई छन्दों में अनेक महत्त्वपूर्ण शब्दों के अर्थ ही छोड़ दिये हैं । छन्द-संख्या ९६ में इस अपार जगजलधि' का अर्थ मात्र 'संसाररूपी सागर' किया है। 'इस' और 'अपार' – इन दोनों शब्दों का अर्थ ही नहीं किया है। _ 'जैन शतक' का दूसरा संस्करण - जो लाहौर से बाबू ज्ञानचन्द्रजी जैनी ने प्रकाशित करवाया है - सूरतवाले उक्त संस्करण की अपेक्षा बहुत उत्तम है। वह अर्थ की दृष्टि से इतना कमजोर नहीं है। उसके अर्थ करीब-करीब ठीक ही लिखे गये हैं। किन्तु उसमें भी कुछ भूलें बड़ी बुरी हुई हैं । उदाहरण के लिए छन्द-संख्या ९७ देखिये :