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हैं
हे मनुष्य ! बचपन में तो तू हिताहित को समझता नहीं था, इसलिए तब अपने hat हीं सँभाल सका, किन्तु युवावस्था में भी या तो तेरे हृदय में स्त्री बसी रही या तुझे निरन्तर धन-लक्ष्मी जोड़ने की अभिलाषा बनी रही और इस प्रकार तूने अपने जीवन के दो महत्त्वपूर्ण पन यों ही बिगाड़ दिये हैं। पता नहीं क्यों तुम इसप्रकार अपने आपको नरक में डाल रहे हो? अब तो सफेद बाल आ गये वृद्धावस्था आ गई है, अभी भी क्यों मूर्ख बने हो ? अब तो चेतो ! गई सो गई; पर जो शेष रही है, उसे तो रखो। अर्थात् कम से कम अब तो आत्मा का हित करने के लिए सचेत होओ।
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जैन शतक
( मत्तगयन्द सवैया)
बालपनै न सँभार सक्यौ कछु, जानत नाहिं हिताहित ही को। यौवन वैस वसी वनिता उर, कै नित राग रह्यौ लछमी को ॥ याँ पन दोइ विगोइ दये नर, डारत क्यौं नरकै निज जी को । आये हैं सेत अज शठ चेत, गई सुगई अब राख रही को ॥ २९ ॥
( कवित्त मनहर )
सार नर देह सब कारज कौं जोग येह,
यह तौ विख्यात बात वेदन मैं बँचै है । तामैं तरुनाई धर्मसेवन कौ समै भाई,
सेये तब विषै जैसैं माखी मधु रचै है ॥ मोहमद भोये धन-रामा हित रोज रोये,
यौंही दिन खोये खाय कोदौं जिम मचै है । अरे सुन बौरे ! अब आये सीस धौरे अजौं,
सावधान हो रे नर नरक सौं बचै है ॥ ३० ॥
शास्त्रों में कही गई यह बात अत्यन्त प्रसिद्ध है कि मनुष्यदेह ही सर्वोत्तम है, यही समस्त अच्छे कार्यों के योग्य है; उसमें भी इसकी युवावस्था धर्मसेवन का सर्वश्रेष्ठ समय होता है; परन्तु हे भाई ! ऐसे समय में तुम विषय - सेवन में इसप्रकार लिप्त रहे, मानों कोई मक्खी शहद में लिप्त हो ।
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हे भाई ! मोहरूपी मदिरा में डूबकर तुम निरन्तर कंचन और कामिनी के लिए रोते रहे अपार कष्ट सहते रहे - और अपने अमूल्य दिनों को तुमने व्यर्थ ही इसप्रकार खो दिया, मानो कोदों खाकर मत्त हो रहे हो । अरे नादान ! सुनो, अब तो सिर में सफेद बाल आ गये हैं, अब तो सावधान होकर आत्मकल्याण कर लो, ताकि नरकादि कुगतियों से बच सको ।