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जैन शतक
( मत्तगयन्द सवैया)
बाय लगी कि बलाय लगी, मदमत्त भयौ नर भूलत त्याँ ही । वृद्ध भये न भजै भगवान, विषै-विष खात अघात न क्याँ ही ॥ सीस भयौ बगुला सम सेत, रह्यो उर अन्तर श्याम अज ही । मानुषभौ मुकताफलहार, गँवार तगा हित तोरत यौं ही ॥ ३१ ॥ यह मनुष्य इसप्रकार मदोन्मत्त होकर सब कुछ भूला हुआ हैं, मानों उसे कोई वातरोग हुआ हो अथवा किसी प्रेतबाधा ने घेर रखा हो ।
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यद्यपि इसकी वृद्धावस्था आ गई है, परन्तु अभी भी यह आत्मा और परमात्मा की आराधना नहीं करता है, अपितु विषतुल्य विषयों का ही सेवन कर रहा है और कभी उनसे अघाता ही नहीं है - उनसे कभी इसका मन भरता ही नहीं है।
यद्यपि इसका सम्पूर्ण सिर बगुले की भाँति एकदम सफेद हो गया है, किन्तु इसका अन्तर्मन अभी भी काला हो रहा है अत्यधिक वृद्धावस्था में भी इसने रागादि विकारों का त्याग नहीं किया है ।
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अहो ! यह मनुष्य-भव मोतियों का हार है, परन्तु यह अज्ञानी इसे मात्र धागे
के लिए व्यर्थ ही तोड़े डाल रहा है ।
१८. संसारी जीव का चिंतवन
(मत्तगयंद सवैया)
चाहत है धन होय किसी विध, तौ सब काज सरें जिय राजी । गेह चिनाय करूँ गहना कछु, ब्याहि सुता, सुत बाँटिये भाजी ॥ चिन्तत यौं दिन जाहिं चले, जम आनि अचानक देत दगा जी । खेलत खेल खिलारि गये, रहि जाइ रुपी शतरंज की बाजी ॥ ३२ ॥
संसारी प्राणी सोचता है कि यदि किसी तरह मेरे पास धन इकट्ठा हो जावे तो मेरे सारे काम सिद्ध हो जायें और मेरा मन पूरी तरह प्रसन्न हो जावे । धन होने पर मैं एक अच्छा-सा मकान बनाऊँ, थोड़ा-बहुत गहना (आभूषण ) तैयार कराऊँ और बेटे-बेटियों का विवाह करके सारी समाज में मिठाइयाँ बँटवा दूँ। परन्तु इस प्रकार सोचते-सोचते ही सारा जीवन व्यतीत हो जाता है और अचानक यमराज हमला बोल देता है - शीघ्र मृत्यु आ जाती है। खिलाड़ी खेलते-खेलते ही चला जाता है और शतरंज की बाजी जहाँ की तहाँ जमी ही रह जाती है । विशेष :- भाजी = विवाहादि उत्सवों में जो मिष्ठान्न बाँटा जाता है, उसे भाजी कहते हैं ।