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जैन शतक
पचास वर्ष; जिसमें भी अनेक रोग होते हैं, नासमझ रूप बाल दशा होती है, असमर्थरूप वृद्ध दशा होती है, उन्मत्तरूप भोंग दशा होती है तथा और भी कितने ही ऐसे-वैसे अनेक संयोग बन जाते हैं। कितनी शेष रही? नहीं के बराबर । अतः हे भाई! भलीप्रकार विचारकर प्रयोजनभूत बात को अपने हृदय में अच्छी तरह उतार लो, इसी में लाभ है। तथा यदि तुम्हारे हमारी बात जंचती हो तो भवबन्धनों से मुक्त हो जाओ; अन्यथा तुम्हारी मर्जी, फँसे रहो भवबन्धनों में; हमने तो तुम्हें समझा दिया है।
१७. बुढ़ापा
(कवित्त मनहर) बालप. बाल रह्यौ पीछे गृहभार वह्यौ,
___लोकलाज काज बाँध्यौ पापन को ढेर है। आपनौ अकाज कीनौं लोकन मैं जस लीनौं,
परभौ विसार दीनौं विषैवश जेर है॥ ऐसे ही गई विहाय, अलप-सी रही आय,
नर-परजाय यह आँधे की बटेर है। आये सेत भैया अब काल है अवैया अहो,
जानी रे सयानैं तेरे अजौं हू अँधेर है ॥२८॥ हे भाई ! तुम बाल्यावस्था में नासमझ रहे, उसके बाद तुमने गृहस्थी का बोझा ढोया, लोकमर्यादाओं के खातिर बहुत-से पाप उपार्जित किये, अपना नुकसान करके भी लोकबड़ाई प्राप्त की, अगले जन्म तक को भूल गये - कभी यह विचार तक न किया कि अगले भव में मेरा क्या होगा, फँसे रहे विषयों के बन्धनों में। और इसप्रकार तुम्हारी इस अंधे की बटेर के समान महादुर्लभ मनुष्यपर्याय की आयु, जो वैसे ही थोड़ी-सी थी, व्यर्थ ही चली गई है। अब तो सफेद बाल आ गये हैं - बुढ़ापा आ गया है और तुम्हें मालूम भी है कि मृत्यु आने ही वाली है। परन्तु अहो! तुम अभी भी आत्मा का हित करने के लिए सचेत नहीं हुए हो। ज्ञात होता है, तुम्हारे अन्दर अभी भी अँधेरा है।
१. पाठान्तर : अपनौ।