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________________ धीरेण वि मरिदव्वं णिद्धीरेण वि अवस्स मरिदव्वं। जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि धीरत्तणेण मरिदव्वं॥ सीलेण वि मरिदव्वं णिस्सीलेण वि अवस्स मरिदव्वं। जदि दोहिं वि मरिदव्वं वरं हि सीलत्तणेण मरिदव्वं॥ (मूलाचार 2/6465) अर्थात् जो धैर्य तथा शील वाला है वह भी मरेगा, जो ऐसा नहीं है वह भी मरेगा फिर क्यों न धैर्य और शील (सचरित्र) के साथ ही मरा जाए। सल्लेखना एक संप्रदायातीत, भाषातीत, देशातीत निर्विवादित प्रक्रिया है। संत विनोबा भावे ने यही समाधिमरण स्वीकारा था। हम इसे ही मृत्यु-विजय कहते हैं और मृत्यु को एक महोत्सव बना देते हैं। सैद्धांतिक रूप से जिनागम में जिस सल्लेखना या मृत्युमहोत्सव की चर्चा है वह किसी भी रूप में आधुनिक इच्छामृत्यु, दयामृत्यु या आत्महत्या की तरह नहीं है। जैन धर्म की दृष्टि से इच्छामृत्यु, दयामृत्यु या आत्महत्या महाहिंसा है तथा इससे बड़ा पाप और कोई नहीं है। आचार्य शिवार्य द्वारा विरचित भगवती आराधना नामक प्राकृत ग्रंथ में सल्लेखना का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। 00 जीना हो तो पूरा जीना, मरना हो तो पूरा मरना। बहुत कठिन है इस जीवन में, आधा जीना आधा मरना॥ -आचार्य महाप्रज्ञ | जैन धर्म-एक झलक /
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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