________________ जैन योग की समृद्ध परंपरा योग भारत की विश्व को प्रमुख देन है। यूनेस्को ने 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस घोषित करने के बाद 21 जून को विश्व योग दिवस की घोषणा करके भारत के शाश्वत जीवन मूल्यों को अंतर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकार किया है। इन दोनों ही दिवसों का भारत की प्राचीनतम जैन संस्कृति और दर्शन से बहुत गहरा संबंध है। श्रमण जैन संस्कृति का मूल आधार ही अहिंसा और योग ध्यान साधना है। इस अवसर पर यह जानना अत्यंत आवश्यक है कि जैन परंपरा में योग ध्यान की क्या परंपरा, मान्यता और दर्शन है? जैन योग की प्राचीनता और आदि योगी जैन योग का इतिहास बहुत प्राचीन है। प्रागैतिहासिक काल के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव ने जनता को सुखी होने के लिए योग करना सिखाया। मोहनजोदड़ो और हड़प्पा में जिन योगी जिन की प्रतिमा प्राप्त हुई है, उनकी पहचान ऋषभदेव के रूप में की गई है। मुहरों पर कायोत्सर्ग मुद्रा में योगी का चित्र प्राप्त हुआ है। यह कायोत्सर्ग की मुद्रा जैन योग की प्रमुख विशेषता है। इतिहास गवाह है कि आज तक प्राचीन से प्राचीन और नई से नई जितनी भी जैन प्रतिमाएँ मिलती हैं वे योगी मुद्रा में ही मिलती हैं। या तो वे खड्गासन मुद्रा की हैं या फिर वे पद्मासन मुद्रा की हैं। खड्गासन में ही कायोत्सर्ग मुद्रा उसका एक विशिष्ट रूप है। नासाग्र दृष्टि और शुक्ल ध्यान की अंतिम अवस्था का साक्षात् रूप इन प्रतिमाओं में देखने को सहज ही मिलती है। इन परम योगी वीतरागी सौम्य मुद्रा के दर्शन कर प्रत्येक जीव परम शांति का अनुभव करता है और इसी प्रकार योगी बनकर आत्मानुभूति को प्राप्त करना चाहता है। जैन योग की अवधारणा अंतिम तीर्थंकर महावीर ने भी ऋषभदेव की योग साधना पद्धति को आगे बढ़ाते हुए सघन साधना की। उनका अनुकरण करते हुए उन्हीं के समान आज तक नग्न दिगंबर साधना करके लाखों योगी आचार्य और साधु हो गए जिन्होंने जैन योग साधना के द्वारा आत्मानुभूति को प्राप्त किया। जैन साधना पद्धति में योग और संवर एक ही अर्थ में प्रयुक्त हैं। प्रथम शताब्दी के आचार्य अध्यात्म योग विद्या के प्रतिष्ठापक आचार्य कुंदकुंद दक्षिण भारत के एक महान योगी थे। उन्होंने प्राकृत भाषा में एक सूत्र दिया “आदा में संवरो जोगो' अर्थात् यह आत्मा ही संवर है और योग है। जैन तत्व विद्या में जो संवर तत्व है, वह ही आज की योग शब्दावली का द्योतक है। | जैन धर्म-एक झलक