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________________ जिजीविषा (जीने की इच्छा) भी विशेष नहीं रहती, वह सिर्फ़ अवश्यंभावी मृत्यु को स्वीकारता है तथा उसका स्नायुतंत्र तनावमुक्त रहता है। 5. आत्महत्या लुक-छिपकर की जाती है तथा बिना आज्ञा लिए की जाती है। सल्लेखना का स्थल सभी को ज्ञात होता है तथा इसमें गुरु की आज्ञा ली जाती है। 6. आत्महत्या अनायास होती है क्रमिक नहीं। ऐसा सुनने में नहीं आता कि अमुक व्यक्ति आत्महत्या में पिछले एक या दो वर्ष या माह से लगा हुआ है। सल्लेखना का एक वैज्ञानिक क्रम है। लोग 12 वर्षों की उत्कृष्ट नियम सल्लेखना भी लेते हैं। साधक बहुत समय से तथा बहुत समय तक सल्लेखना लिए रहता है। जिसने जीवन में कभी व्रत, उपवास, स्वाध्याय आदि नहीं किया, वह भी जल्दी सल्लेखना नहीं ले सकता। इसके अलावा भी बहुत सारे अंतर इन दोनों के बीच में हैं। मौत का क्या भरोसा? किस क्षण चली आए। आज तक हमने अस्पतालों में, बोतलों पर चढ़े, दवाइयों के नशे में पलस्तरों और इंजेक्शनों के बीच रोते, बिलखते मरते बहुत लोगों को देखा है। ये अंत समय तक जीना चाहते थे। शराबी, शबाबी तथा कबाबी लोगों को नालियों में मरते देखा है, ये भी जीना चाहते थे। हत्याओं, डकैतियों और आतंकवाद में लिप्त लोगों को गोलियों से छलनी अवस्था में उनकी दयायाचक नम आँखों को देखा है, यह भी जीना चाहते थे। निराशा, हताशा, असफलताओं से घबराए, भावनात्मक रूप से क्षत-विक्षत लोगों को पंखों से लटककर, ट्रेनों के नीचे कटकर या विष खाकर आत्महत्या करते देखा है, यह भी जीना चाहते थे लेकिन डरपोक थे, जो नहीं जी पाए। इनकी कमज़ोरी ने इन्हें मार दिया था। वहीं दूसरी तरफ़ कई तपस्वियों, मनियों, आर्यिकाओं, साधुओं-साध्वियों तथा श्रावकों-श्राविकाओं को मरते वक्त भी समता की मुद्रा में देखा है। दो या तीन महीनों से एक समय अन्न लेना, फिर हफ़्तों बिना अन्न के मात्र फल-जूस पर रहना, कई दिनों तक निर्जल भी रहना, ऐसा साधना करते 70-80 वर्ष तक के लोगों को आनंद की मुद्रा में आत्मभक्ति करते देखा है। सबके प्रति दया, प्रेम और क्षमा की रेखाओं को उनके मुखमंडल पर पाया है। मुझे आश्चर्य है लोग कहते हैं ये मर रहे हैं। मुझे तो लगता है वास्तव में ये ही एक-एक क्षण जीवन का जी रहे हैं वो भी संयम, साधना और धर्मपूर्वक। उनके मुख पर मृत्यु भय की रेखा तक नहीं दिखाई देती। कल्पना कीजिए! ये अगर खाने-पीने लग भी जाएँ, दुनिया के प्रपंचों में मन रमाएँ, प्रधानमंत्री पद तक की वांछा भी करें, तपस्या से वापस आकर छल-कपट के पुनः इतिहास रचने लग जाएँ तो क्या इनकी आयु और बढ़ जाएगी? क्या ये बीसपच्चीस वर्ष और जी लेंगे? नहीं! इन्हें पता है| जैन धर्म-एक झलक /
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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