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________________ करता है। यह तो निश्चित है कि बोझिल आत्मा कभी सुखी नहीं रह सकती। अतः वह प्रयास करता है कि मृत्यु से पहले जब तक बात मेरे हाथ में है, मैं अपनी आत्मा को शुद्ध बना लूँ। इसलिए वह प्रायश्चित (प्रतिक्रमण) भी करता है, और पूरा समय होने पर शांत भाव से उसकी आयु स्वतः समाप्त हो जाती है। यह मृत्यु पर विजय है। इस बीच यदि रोग हट जाए, विपत्ति टल जाए और ऐसा लगे कि अभी तो आयु बहुत बची है तब सल्लेखना से वापस आकर उसे संयमपूर्वक शेष जीवन जीने की आज्ञा भी जैनागमों में दी गई है। हमने कई तरह से लोगों को मरते देखा है। जीवन भर खूब खाया-पिया, अंत समय में खाने को हाय-तौबा किए रहते हैं, कोई अंतिम समय तक दूसरों को गाली देता रहा, बदले की आग में झुलसता रहा, बड़बड़ करता रहा, परिवार, मकान-दुकान की चिंता करता रहा और रोता रहा। मरते-मरते भी यश-कीर्ति, सांसारिक भोगों से आसक्ति नहीं छूटी और मौत ज़बरदस्ती उन्हें उठाकर ले गई। वर्तमान में सल्लेखना के आध्यात्मिक रहस्य को समझना आसान नहीं है और इसके संबंध में उठने वाले प्रश्नों के उत्तर भी दो दूनी चार जैसे नहीं दिए जा सकते। इसके लिए कुछ स्वाध्याय करना पड़ेगा व कुछ प्रयोग देखने पड़ेंगे। कई लोग नासमझी में इस परम आध्यात्मिक भाव परिष्कार की चिकित्सा को 'आत्महत्या' जैसे तुच्छ शब्दों का प्रयोग कर दूषित करते हैं। सल्लेखना या संथारा के द्वारा जो समतापूर्वक समाधिमरण होता है, उसमें और आत्महत्या में ज़मीन-आसमान की तरह कई मौलिक अंतर हैं 1. आत्महत्या वह व्यक्ति करता है जो परिस्थितियों से उत्पीड़ित है, उद्विग्न है तथा जिसकी मनोकामनाएँ पूर्ण नहीं हुई हों। वह संघर्षों से घबराकर कुएँ में कूदकर, कहीं से गिरकर, विष खाकर, फाँसी लगाकर अपना जीवन समाप्त कर लेता है जबकि सल्लेखना व्यक्ति द्वारा किसी परिस्थिति से घबराकर या निराशा में नहीं ली जाती और न ही मरने के लिए कोई निमित्त खोजा जाता है, बल्कि संयम की आराधना करते हुए स्वाभाविक मृत्यु से न भागकर उसका सहर्ष स्वागत करता है। ___2. आत्महत्या के मूल में भय और कामनाएँ रहती हैं, वासनाओं की तीव्रता तथा उत्तेजना रहती है जबकि सल्लेखना में कषाय, इच्छा, वासना, भय इन सभी चीज़ों का अभाव रहता है। 3. आत्महत्या करते समय व्यक्ति की मुखमुद्रा विकृत होती है, उस पर तनाव होता है तथा भय की रेखाएँ दिखाई देती हैं। सल्लेखना में साधक की मुखमुद्रा पूर्ण शांत होती है, उसके चेहरे पर किसी किस्म की आकुलता-व्याकुलता नहीं रहती। 4. आत्महत्या करने वाले की मृत्यु आकस्मिक होती है तथा उसका स्नायुतंत्र तनावयुक्त रहता है। सल्लेखना करने वाला मरने का प्रयास नहीं करता किंतु उसे | जैन धर्म-एक झलक
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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