________________ मरने की कला : अंत थला सो सब थला ___ जन्म और मृत्यु ये जीवन की दो सबसे बड़ी सच्चाइयाँ हैं। जन्म से पहले क्या था? मृत्यु के बाद क्या होगा? इन सब विषयों पर अलग-अलग धर्मों की राय अलगअलग हो सकती है क्योंकि यह विषय अनुमान और श्रद्धा का है। किंतु यह बात कि 'जन्म होता है और जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी अवश्य होती है।' इस विषय पर दुनिया के किसी धर्म, संप्रदाय या विज्ञान में मतभेद नहीं है। यह इतना अधिक प्रत्यक्ष व अनुभूत तथ्य है कि इसको झुठलाने की शक्ति किसी में भी नहीं है। _ 'मृत्यु' जैसे सच को जैन धर्म ने बहुत गंभीरता से लिया है। इस विषय पर जैनाचार्यों ने अत्यंत वैज्ञानिक चिंतन किया है। विचार किया गया कि यदि एक न एक दिन मृत्यु होनी ही है तो क्यों न सकारात्मक हो? जिस प्रकार हम जन्म को मंगल मानते हैं उसी प्रकार मरण को भी मंगल बना दें। जब प्रश्न उभरा कि मरण को किस प्रकार मंगल मानें? तब जैन धर्म में त्याग और संयम के चरमोत्कर्ष स्वरूप सल्लेखना को जन्म दिया। सल्लेखना को संथारा, समाधिमरण, मृत्यु-महोत्सव आदि नामों से भी जाना जाता है। जीने की कला सिखाने वाले तो दुनिया में बहुत हैं, पर मरने की कला भी सिखाना जैन धर्म की एक विशिष्टता है। यह सल्लेखना गृहस्थ तथा साधु दोनों ले सकते हैं। सल्लेखना क्या है? स्वतः मरणकाल निकट होने पर सभी प्रकार की निराशा, हताशा, चिंता, कषाय तथा विषय आदि त्यागकर समता-ध्यानपूर्वक देह को छोड़ना ही समाधिमरण या सल्लेखना कहलाता है। आचार्य समंतभद्र ने सल्लेखना का लक्षण बताया है उपसर्गे दुर्भिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतिकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः॥ (रत्नकरण्ड श्रावकाचार-122) भावार्थ यह है कि यदि मृत्युदायक ऐसी विपत्ति आ जाए, ऐसा अकाल पड़ जाए, ऐसा बुढ़ापा आ जाए और ऐसा रोग हो जाए जिसको टालना संभव न हो और मृत्यु अवश्यंभावी हो तब आत्म धर्म की रक्षा के लिए संयमपूर्वक शरीर का त्याग करने को सल्लेखना कहते हैं। यह साधक की अंतःक्रिया है। वह मृत्यु का समय स्वतः नज़दीक आने पर मन से सभी भोग पदार्थों का त्याग कर देता है। आसक्ति कम होने से धीरे-धीरे वह भोजन को कम करता जाता है। अपना मन णमोकार मंत्र, समाधिमरणपाठ तथा ध्यान में लगाता है। सभी से कृत अपराधों की क्षमा-याचना भी जैन धर्म-एक झलक / ALL