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(3) उत्तम आर्जव- ऋजुता अर्थात् सरलता का नाम आर्जव है। आर्जव धर्म विरोधी माया कषाय है। मायाचारी कभी परमात्म पद नहीं पा सकता, अतः माया अभाव आवश्यक है। सरल मनुष्य ही आत्मानुभूति कर सकता है।
(4) उत्तम शौच- शुचिता अर्थात् पवित्रता का नाम शौच है। लोभ-कषाय के अभाव में शौच धर्म उत्पन्न होता है। लोभी लोभ के कारण पाप करता है, अतः लोभ आत्म-कल्याण में बाधक है।
(5) उत्तम सत्य- आत्म-कल्याण के इच्छुक को चाहिए कि वह आत्मा के सत्य धर्म की रक्षा करे। जो वस्तु जैसी है, उसे वैसा ही मानना सत्य है। सत्य विपरीत मिथ्यात्व समस्त संसार में भ्रमण का कारण बनता है।
(6) उत्तम संयम-संयमन को संयम कहते हैं। पाँच व्रतों का पालन करना, पाँच समितियों का पालन करना, क्रोधादि कषायों का निग्रह करना पाँच इंद्रियों के विषय को जीतना संयम है।
(7) उत्तम तप- समस्त रागादि परभावों की इच्छा के त्याग द्वारा स्वरूप में रमण करना तप है। अंतरंग तप और बहिरंग तप ये दोनों मिलाकर बारह प्रकार के तप होते हैं।
(8) उत्तम त्याग-निज शुद्धात्मा के ग्रहणपूर्वक बाह्य और आभ्यंतर परिग्रह (वस्तु संग्रह) से निवृत्ति त्याग है।
(9) उत्तम आकिंचन्य- परिग्रह के अभाव में आकिंचन्य धर्म प्रकट होता है, इसे अपरिग्रह भी कहा जाता है। अपरिग्रह का अर्थ है ज़्यादा इकट्ठा करने की भावना का त्याग। शास्त्रों में कुल चौबीस प्रकार का परिग्रह माना गया है। उसका त्याग हो तभी आकिंचन्य धर्म होता है।
(10) उत्तम ब्रह्मचर्य- अनगार धर्मामृत में कहा है- या ब्रह्मणि स्वात्मनि शुद्धबुद्धे चर्या परद्रव्यमुचप्रवृत्ति : तद् ब्रह्मचर्यम्' –पर द्रव्यों से रहित शुद्धबुद्ध अपनी आत्मा में जो चर्या अर्थात् लीनता होती है, उसे ब्रह्मचर्य कहते हैं। साधुओं के सर्वथा स्त्री संसर्ग का त्याग तथा गृहस्थों के लिए स्वपत्नी संतोषव्रत ही व्यवहार से ब्रह्मचर्य धर्म है।
इस प्रकार दशों दिन आत्मा के इन दशधर्मों की भावपूर्वक आराधना करने वाला शीघ्र ही आत्मा की अनुभूति को प्राप्त करता है और निराकल मोक्ष पद की प्राप्ति शीघ्र ही कर लेता है। ये दशधर्म आत्मा को शुद्ध बनाते हैं।
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जैन धर्म-एक झलक