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________________ 11 आत्मानुभूति का मार्ग : दशलक्षण धर्म भारतीय संस्कृति में पर्वों का बहुत महत्व है। पर्व का नाम सुनते ही नए वस्व, पकवान, मिठाई इत्यादि की कल्पना मन को खुश कर देती है। पर्युषण पर्व आने पर बहुत उत्साह रहता है। किंतु यह उत्साह खाना-पीना छोड़ने के प्रति रहता है। इन दिनों छोटे से छोटे बच्चे तक व्रत, उपवास, संयम तथा स्वाध्याय इत्यादि में दत्तचित्त हो जाते हैं। सभी प्रातः देवदर्शन करके दशलक्षण पूजन पढ़ते हैं, उसके बाद ही एकासनपूर्वक दिन में एक बार अन्न ग्रहण करते हैं। कितने ही दस दिनों तक अन्नजल तक ग्रहण नहीं करते और तपस्यापूर्वक अपने कर्मों की निर्जरा (दक्ष) करते हैं। दशलक्षण पर्युषण महापर्व पर धर्मात्मा बंधु आत्मा के दश धर्मों की विशेष आराधना करते हैं। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग, आकिंचन और ब्रह्मचर्य ये आत्मा के स्वाभाविक धर्म हैं किंतु अशुभ कर्मों के उदय से जीव इनके विपरीत परिणमन करने लगता है और नए अशुभ कर्म बाँध लेता है जिसका फल दुःखों के रूप में प्राप्त होता है। न सिर्फ़ जैन परंपरा में अपितु मनुस्मृति में भी क्षमा धृति इत्यादि दश धर्मों का कुछ प्रकारांतर से उल्लेख है। 2 उत्तम क्षमादि धर्मों की आराधना भले ही जैन धर्म के अनुयायी ही करते हों लेकिन आत्मा के इन स्वाभाविक धर्मों की आराधना उन सभी को करने योग्य है जो आस्तिक हैं और जो आत्मा के अस्तित्व को स्वीकारते हैं। वैसे तो दश दिन दशों धर्मों की आराधना का विधान है किंतु प्रमुखता की दृष्टि से क्रमशः एक-एक दिन एक धर्म की प्रधानता से चिंतन किया जाता है। अब आत्मा के इन दशलक्षणों का क्रम से महत्व समझेंगे (1) उत्तम क्षमा- आत्मा क्षमा स्वभावी है। उत्तम शब्द सम्यग्दर्शन का सूचक है जो शेष सभी धर्मों में समान रूप से लगता है। क्षमा मनुष्य की आत्मा का स्वाभाविक धर्म है, उसके विभाव रूप परिणमन से ही जीव क्रोधी हो जाता है। क्रोध आत्मा का स्वभाव नहीं हो सकता । अतः क्रोध को छोड़ना या कम करना क्षमा है। (2) उत्तम मार्दव - मृदुता अर्थात् कोमलता का नाम मार्दव है। मान कषाय के कारण जीव अकड़ जाता है। उसमें कोमलता का अभाव हो जाता है। इसके कारण वह दूसरों को छोटा और स्वयं को बड़ा मानता है। मान के लिए छल-कपट करता है तथा मान भंग होने पर क्रोधित होता है इस कारण वह धर्माराधना नहीं कर पाता, अतः मान के अभाव रूपी मार्दव भी आत्मा का धर्म है। जैन धर्म एक झलक 39
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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