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________________ 12 जीवन का उत्कर्ष : बारह भावनाएँ जैन धर्म में भावनाओं का बहुत महत्व है । मानव मन सदा काल से भावनाएँ करता चला आ रहा है। कहते हैं यदि हमारी भावनाएँ शुद्ध हों तो हम सब कुछ पा सकते हैं। हम भगवान का पूजन करते हैं, भक्ति करते हैं किंतु यदि वहाँ भावों का संयोग न हो तो पूजन-भक्ति निष्फल चली जाती है । भाव- शून्य क्रिया कहीं भी फलदायी नहीं होती। जीवन की छोटी-छोटी क्रियाओं पर भी भावनाओं का गहरा असर होता है। " प्रभु की भक्ति या आत्मा की भक्ति बिना भावनाओं के कार्यकारी नहीं हो पाती है, इसलिए प्राचीन काल से ही ऋषि-मुनियों ने भाव क्रिया पर ज़ोर दिया। जैन परंपरा में भावना का प्रयोग अनुप्रेक्षा शब्द से किया है। संवेग और वैराग्य की अभिवृद्धि में इन बारह प्रकार की विशेष भावनाओं का अत्यधिक महत्व है। इन्हीं बारह भावनाओं को द्वादशानुप्रेक्षा कहा जाता है अनुप्रेक्षा का अर्थ है- बार-बार चिंतवन तथा मनन करना। तत्वार्थसूत्र ग्रंथ में निम्न प्रकार से बारह अनुप्रेक्षाएँ ध्यान व मनन करने योग्य बतलाई है अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वशुच्यास्त्रवसंवरनिर्जरालोक बोधिदुर्लभधर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा । अर्थात् अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म का चिंतवन करना अनुप्रेक्षा है। (1 ) अनित्य- “ शरीर, इंद्रिय, विषय और भोगोपभोग ये जितने हैं, सब जल के बुलबुले के समान अनवस्थित स्वभाव वाले और समाप्त होने वाले हैं। मोह के कारण मैं व्यर्थ ही इन्हें नित्य मानकर इनमें आसक्त हूँ। आत्मा के ज्ञान, दर्शन, चिदानंद स्वरूप को छोड़कर संसार में कुछ भी नित्य नहीं है, अतः उस ब्रह्म स्वरूपी आत्मा का ही चिंतवन मुझे करना चाहिए" - इस प्रकार की बार - बार भावना करना अनित्य अनुप्रेक्षा है। ऐसा चिंतवन करते रहने से प्राप्त वस्तु के वियोग में दुःख नहीं होता। ( 2 ) अशरण - " दुनिया में लोग जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधियों से घिरे हुए हैं । यहाँ मनुष्य की कोई शरण नहीं है। भोजन शरीर की चाहे जितनी सहायता करे किंतु दुःखों के प्राप्त होने पर उसका कोई उपयोग नहीं होता। धन को चाहे जितना इकट्ठा करूं किंतु मरण से वह भी बच्चा नहीं पाता इस जगत् में मित्र, पत्नी, पुत्र, पति जिन्हें हम अपना शरणभूत समझते हैं, अंत में दुःख ही देते हैं। तत्वतः जगत् में धर्म, ज्ञान-स्वभावी आत्मा और सभी कर्मों से मुक्त परमात्मा के अलावा मेरी सच्ची शरण जैन धर्म एक झलक 41
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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