________________
लक्ष्य के समक्ष स्वर्ग की कामना से भी रहित होकर अपने लक्ष्य के लिए प्रयत्नशील बने रहने को भी कहता है। पुण्य भी स्वर्ग या अन्य शुभ गति रूप संसार ही प्रदान कराने वाला है; अतः आत्मोकर्ष की बहुत ऊँचाई पर पहुंचने पर पुण्य भी बाधक तत्व होने से वह भी एक स्थिति में त्याज्य माना जाता है। इसलिए आचार्य कुंदकुंद जैसे महान आध्यात्मिक जैनाचार्य ने पाप को लोहे की बेड़ी तथा पुण्य को सोने की बेड़ी कहा है और यह ही कह दिया कि बेड़ी चाहे सोने की हो या लोहे की, आखिर है तो बेड़ी ही। अतः दोनों का कार्य भी बाँधने (संसार परिभ्रमण) का ही होगा। व्यावहारिक दृष्टि से पाप की अपेक्षा पुण्य के मार्ग पर चलकर यदि अंतिम लक्ष्य मोक्ष की ओर उन्मुख रहें तो निश्चित ही हम शाश्वत सुख को प्राप्त कर सकते हैं। तीन लोक का जैन धर्म की दृष्टि से संक्षेप में वर्णन इस प्रकार हैमध्यलोक
मध्यलोक में जिस पृथ्वी पर हम सब रहते हैं उसी पृथ्वी का नाम चित्रा पृथ्वी है। उसकी मोटाई एक हज़ार योजन है। सुमेरू पर्वत की जड़ एक हज़ार योजन इस पृथ्वी से भीतर है। इस सुमेरू का इस जड़ से नीचे सात राजू प्रमाण अधोलोक प्रारंभ होता है और क्रमशः एक के नीचे एक करके नरक की सात पृथ्वियाँ स्थित हैं। अधोलोक (नरक)
अधोलोक की इन सात नरक भूमियों में पहली भूमि रत्नों जैसी प्रभा से युक्त होने के कारण रत्नप्रभा पृथ्वी कहलाती है। दूसरी शर्करा (ककंड) से सदृश होने से शर्कराप्रभा पृथ्वी है। तीसरी बालुका (रेत) की प्रमुखता से बालुकाप्रभा है। चौथी पंक (कीचड़) की अधिकता होने से पंकप्रभा है। पाँचवीं धूम (धुएँ) की अधिकता होने से धूमप्रभा है, छठी तम (अंधकार) की विशेषता से तमप्रभा है और सातवीं महातम (घनांधकार) की प्रचुरता से महातमप्रभा है।
इन पृथ्वियों में एक-दूसरे के बीच में असंख्य योजनों का अंतर है। इनमें रहने वाले जीव नारकी कहलाते हैं। तत्वार्थसूत्र में कहा है कि ये नारकी क्रमशः अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया वाले होते हैं तथा ये परस्पर में एक-दूसरे को दुःख उत्पन्न करते हैं। इन नारकियों की उत्कृष्ट स्थिति (आयु) क्रमशः एक सागर, तीन सागर, दश सागर, सत्रह सागर, बाईस सागर तथा तैंतीस सागर होती है। नरकों में भयानक दुःख होने पर भी असमय में मृत्यु नहीं होती। ये तीसरे नरक तक के नारकी जीव अत्यंत संक्लिष्ट परिणामों के धारक अंबावरीष जाति के असुरकूमार देवों के द्वारा उत्पन्न दुःख से युक्त होते हैं। अर्थात् ये असुरकुमार उन नारकियों को पूर्व शत्रुता (बैर) का स्मरण दिलाकर आपस में लड़ाते हैं और उन्हें दुःखी देखकर हर्षित
| जैन धर्म-एक झलक