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________________ होते हैं। इस तरह ये नारकी अपने पूर्व कर्मवश दारुण दुःख अपनी पूरी उम्र भर सहने के लिए बाध्य रहते हैं। जीव पापोदय से ही नरकगति में जन्म ग्रहण करता है। नारकी जीव मरणकर नरक और देवगति में जन्म ग्रहण नहीं करते किंतु मनुष्य और तिर्यंच गति में ही जन्म लेते हैं। ऊर्ध्वलोक (स्वर्ग) सुमेरू पर्वत की चूलिका से एक बाल (केश) मात्र अंतर से ऊर्ध्वलोक प्रारंभ होकर लोक शिखर पर्यंत 1,00,400 (एक लाख चार सौ) योजन कम सात राजू प्रमाण है। इनमें मुख्य रूप से वैमानिक देवों का निवास है, अतः इसे देवलोक, स्वर्गलोक आदि कहते हैं। ऊर्ध्वलोक के दो भाग हैं-कल्प और कल्पातीत। जिन स्वर्गों में इंद्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक -ये दस कल्पनाओं से युक्त देव पद होते हैं, उन्हें कल्प कहते हैं तथा इन कल्पों में उत्पन्न देव कल्पोत्पन्न कहलाते हैं और सोलहवें कल्प से ऊपर इन कल्पनाओं से रहित अर्थात् कल्पों से ऊपर के अहमिंद्र देव कल्पातीत विमानवासी कहलाते हैं। यहाँ देवों में किसी प्रकार का भेद नहीं होता। वे सभी अहमिंद्र कहलाते हैं। कल्पोत्पन्न देव ही किसी निमित्त से मनुष्य लोक में आवागमन का कार्य करते हैं, कल्पातीत देव अपना स्थान छोड़कर कहीं नहीं जाते। वस्तुतः देवों के चार निकाय (समूह) माने गए हैं- भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक। इनमें भवनवासी देवों के दस भेद हैं- असुर, नाग, विद्युत, सुपर्ण, अग्नि, वात, स्तनित, उदधि, द्वीपकुमार और दिक् कुमार। दूसरे व्यंतर निकाय के देवों के आठ भेद हैं- किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच। तीसरे ज्योतिष्क देवों के पाँच भेद हैं- सूर्य, चंद्रमा, ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्णक तारे। चतुर्थ वैमानिक देव पूर्वोक्त दो ही प्रकार के हैं- कल्पोत्पन्न और कल्पातीत। ये वैमानिक देव जिन सोलह कल्पों (स्वर्गों) में रहते हैं, वे हैं- सौधर्म, ईशान, सनतकुमार, माहेंद्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत। इन सोलह स्वर्गों से ऊपर कल्पातीत हैं। सोलह स्वर्गों में इंद्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद्, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक; इन दस की कल्पना होती है किंतु कल्पातीतों में यह कल्पना नहीं है, इसलिए वहाँ सभी अहमिंद्र कहलाते हैं। जैन धर्म-एक झलक
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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