SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 48
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यहाँ ‘स्यात् अस्ति' का अर्थ है कि स्व द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से वस्तु है और 'स्यात् नास्ति का अर्थ है कि परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से वस्तु नहीं है। ये दोनों स्थितियाँ एक ही समय में अलग-अलग भी हो सकती हैं और एक साथ भी; अतः तीसरा भंग भी बना 'स्यात् अस्ति नास्ति' । अब सभी धर्मों को एक समय में एक साथ बिना क्रम के बोलने को कहोगे तो कहना पड़ेगा 'स्यात् अवक्तव्य' अर्थात् यह एक ऐसी अपेक्षा है जहाँ वाणी भी मौन धारण कर लेती है। अतः किसी अपेक्षा से अवक्तव्यता भी बनती है। ये चार भंग मुख्य हो गए, अब शेष तीन भंग 'स्यात् अस्ति अवक्तव्य', 'स्यात् नास्ति अवक्तव्य' तथा तीनों को मिलाकर 'स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य' बनते हैं। एक ही समय में वस्तु अपने द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की अपेक्षा से है भी और उसी समय में दूसरे द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भाव की अपेक्षा से वह नहीं भी है स्व की अपेक्षा अस्ति और पर की अपेक्षा नास्ति और सबको एक ही समय में अक्रम से कह सकने में असमर्थता की अपेक्षा अवक्तव्यता - ये सब धर्म वस्तु में एक ही समय में विद्यमान हैं। इन सात के अलावा आठवाँ नहीं बना सकते। आठवाँ भंग बनाएँगे तो उसमें पुनरुक्ति दोष अवश्य आएगा। इसलिए भंग सात ही हैं। दरअसल हम किसी भी वस्तु के बारे में सात नवीन कथन ही कर सकते हैं। ये सात भंग या सात प्रकार की वचन विधि जैन दर्शन की मौलिक खोज है। नयवाद वस्तु के अनंत धर्मों में से जब किसी धर्म को ही समझाना हो तब नयवाद का सहारा लिया जाता है। ज्ञाता का अभिप्राय नय कहलाता है। हम लोग जब भी कुछ कहते हैं तब हमारा कोई न कोई आशय होता है। चार लोग यदि एक ही वाक्य बोलें तो भी जरूरी नहीं कि उनके आशय भी समान हों, अतः ऐसे समय में वक्ता के आशय को समझना, श्रोता के आशय (अभिप्राय) को समझना - यह सारा काम 'नय' सिद्धांत सँभालता है। इसके भी कई भेद-प्रभेद हैं। - इन तीन सिद्धांतों को गहराई से समझे बिना जैन धर्म के मर्म को समझ पाना बहुत कठिन है। यहाँ इन सिद्धांतों को गहराई से समझने के लिए जैन दर्शन विषयक प्राकृत एवं संस्कृत साहित्य देखना चाहिए। आचार्य समंतभद्र की 'आप्तमीमांसा', सिद्धसेन दिवाकर का 'संमत्ति तर्क' विमलदास की 'सप्तभंगी तरंगिणी, देवसेन की "आलापपद्धति' तथा माइल्लथवल का 'नवचक्र आदि इन विषयों को गहराई से समझाने वाले ग्रंथ हैं। 34 00 जैन धर्म एक झलक
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy