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________________ है। पत्नी कहे कि यह सिर्फ़ मेरा पति है और किसी का कुछ नहीं है तो यह एकांतवाद हो जाएगा और विवाद जन्म लेंगे। यहाँ सभी उसे अपनी अपेक्षा रिश्ते को तो स्वीकारें किंतु अन्य की अपेक्षा उसमें जो भ्राता, पिता, दामाद इत्यादि के धर्म विद्यमान हैं उसे नकारे नहीं, उसका भी अस्तित्व स्वीकारें तभी वह दृष्टि अनेकांत कहलाएगी। बहुआयामी पदार्थ को जानने के लिए बहु-आयामी दृष्टि तो रखनी ही पड़ेगी। विश्वशांति के लिए सह-अस्तित्व का सिद्धांत बिना अनेकांत दर्शन के नहीं अपनाया जा सकता। आज परिवार में, समाज में राष्ट्र और विश्व में जितने भी लड़ाई-झगड़े चल रहे हैं, वे वस्तु की सही समझ के अभाव में चल रहे हैं। इनमें से प्रत्येक हर घटना को मात्र अपनी दृष्टि से देखता है तथा उसे ही अंतिम और पूर्ण सत्य मानता है। संघर्ष यहीं से आरंभ होता है। जिस दिन हम दूसरे की दृष्टि की यथार्थता और महत्व को समझने लगेंगे और उसका सम्मान करने लगेंगे उसी दिन से हम 'सम्यक् दृष्टि' को पा लेंगे और संघर्षो की कोई संभावना ही नहीं रहेगी। किंतु ऐसा मानने और समझने के बाद भी हमारे आचरण में अनेकांत नहीं आ पाने के कारण ही समस्याएँ यथावत् बनी हुई हैं। स्याद्वाद अनंत धर्मात्मक होने से वस्तु अनेकांत स्वभाव वाली कहलाती है। प्रश्न यह है कि इस अनंत धर्मात्मकता को अभिव्यक्ति कैसे दी जाए? इसके लिए जैनाचार्यों ने एक कथन पद्धति भी विकसित की, जिसका नाम है- स्याद्वाद अतः अनेकांत की कथन शैली को स्याद्वाद कहा जाता है। स्याद्वाद बोलने की एक वैज्ञानिक कला है । प्रायः अनेकांत और स्याद्वाद को पर्यायवाची मान लिया जाता है किंतु ऐसा नहीं है। इन दोनों में वाच्य (जिसके बारे में कहा जाए) और वाचक (जो कहने वाला है) का संबंध है। स्याद्वाद पद दो शब्दों से मिलकर बना है- स्यात् और वाद यहाँ 'स्यात्' का अर्थ है 'कथचित्' अर्थात् किसी अपेक्षा से, तथा 'वाद' का अर्थ है 'वचन' अर्थात् किसी अपेक्षा को बतलाकर कहा गया वचन । स्याद्वाद का एक नाम सापेक्षवाद भी है। वैज्ञानिक आइन्टीन का सापेक्षतावाद का सिद्धांत अनेकांत स्याद्वाद सिद्धांत के बहुत निकट है। स्याद्वाद सप्तभंगी के माध्यम से अपनी बात कहता है वह सप्तभंगी निम्न प्रकार हैं (1) स्यात् अस्ति (3) स्यात् अस्ति नास्ति (5) स्यात् अस्ति अवक्तव्य (7) स्यात् अस्ति नास्ति अवक्तव्य जैन धर्म एक झलक - (2) स्यात् नास्ति (4) स्यात् अवक्तव्य (6) स्यात् नास्ति अवक्तव्य 33
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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