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________________ 9 जैन दर्शन की रीढ़ : अनेकांत और स्याद्वाद जैन धर्म तथा दर्शन में कई सिद्धांत हैं जो बहुत ही महत्वपूर्ण तथा उपयोगी हैं किंतु उन सभी सिद्धांतों में 'अनेकांत, स्याद्वाद एवं नयवाद' ये तीन ऐसे सिद्धांत हैं जिनमें शेष सभी सिद्धांतों का अंतर्भाव लगभग हो ही जाता है। इसलिए इन्हें समझना बहुत ज़रूरी है ये सिद्धांत भगवान महावीर के पूर्व से ही जैन परंपरा में प्रसिद्ध थे। भगवान महावीर ने इन सिद्धांतों को पुनस्थापित किया और इन सिद्धांतों का उपयोग आत्म-कल्याण के साथ-साथ जनकल्याण में भी किया। अनेकांत 'अनेकांत' वस्तु को देखने का एक ऐसा तत्वदर्शन है जिसने वर्तमान में सभी को आकर्षित किया है। अनेकांत दृष्टि की आवश्यकता आज पूरे विश्व को है। यदि अनेकांत की शास्त्रीय परिभाषा की बात करें तो उसकी परिभाषा है कि 'एक ही वस्तु में वस्तुपने को प्रकट करने वाली तथा परस्पर दो विरोधी प्रतीत होने वाली शक्तियों का एक साथ प्रकाशित होना अनेकांत कहलाता है।' कहने का तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु में मात्र एक धर्म ही नहीं होता है। उसमें अनेकांत में 'अनेक' एक' अर्थात् बहुत या अनंत अनंत धर्म होते हैं। अनंत धर्मों से युक्त वस्तु ही 'अनेकांतात्मक' कहलाती है। और 'अंत' ये दो शब्द हैं। अनेक का अर्थ स्पष्ट है 'न 'अंत' का अर्थ होता है 'धर्म'। | किसी भी घटना, परिस्थिति, वस्तु या जीवन का मात्र एक पहलू नहीं होता है वरन् अनेक पहलू होते हैं और उन अनेक पहलुओं की उपेक्षा करते हुए किसी एक पहलू से घटना, परिस्थिति, वस्तु या जीवन को देखना अथवा उसकी व्याख्या करना एकांतवाद है। जब तक हम हर दृष्टि से किसी वस्तु की व्याख्या नहीं करेंगे तब तक उस वस्तु के सच्चे स्वरूप को नहीं समझ सकते। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। एक व्यक्ति है; वह भाई भी है; पिता भी है, पति भी है, पुत्र भी है दामाद भी है साला भी है। अब प्रश्न कि एक व्यक्ति में इतने धर्म कैसे हैं? इसे अपेक्षा से समझेंगे तो सुविधा रहेगी। वह व्यक्ति अपने भाई की अपेक्षा भाई है, बेटे की अपेक्षा पिता है, पत्नी की अपेक्षा पति है, माता-पिता की अपेक्षा पुत्र है, सास-ससुर की अपेक्षा दामाद है तथा जीजा की अपेक्षा साला है। अपेक्षा लगा देंगे तो सब ठीक है कोई विवाद नहीं है। अब यहाँ हर व्यक्ति उसे सिर्फ़ अपने से संबंधी रिश्ते का ही नाम दे और अन्य से झगड़े तो उसका कोई औचित्य नहीं जैन धर्म एक झलक 32
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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