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________________ मन न लगाए, यही ब्रह्मचर्याणुव्रत है। काम सेवन संबंधी सलाह या उपदेश देना, दूसरों के विवाह से ज़्यादा चिंता करना, काम की तीव्र लालसा करना, गंदे व अश्लील चित्र देखना, उपन्यास या कथाएँ पढ़ना, फ़िल्में देखना ये सब ब्रह्मचर्याणव्रत में दोष हैं। आज के सामाजिक परिवेश में यौनाचार तथा अश्लीलता का जो खुला और खोखला रूप सामने आ रहा है तथा एड्स जैसे जानलेवा रोग फैल रहे हैं उस संदर्भ में ब्रह्मचर्याणुव्रत बहुत प्रासंगिक प्रतीत होता है। (5) परिग्रह-परिमाण-अणुव्रत-आसक्ति या मूर्छा को परिग्रह कहते हैं। मनुष्य अधिक से अधिक वस्तुएँ एकत्रित करना चाहता है। उसकी कोई सीमा नहीं है। ज़रूरत से अधिक वस्तुओं को एकत्रित करना तथा उसमें आसक्ति रखना परिग्रह है। यदि गहराई से देखा जाए तो शेष सभी पापों की जड़ भी यही है। अधिक धन-संपत्ति एकत्रित करने के लिए हिंसा, झूठ, चोरी तथा कुशील का सहारा लेना पड़ता है। सब कुछ एकत्रित करने के बाद भी, बेजान वस्तुओं, सुख-सुविधाओं के भंडार से घिरा व्यक्ति अंततोगत्वा खुद को तनहा ही पाता है। तनाव, चिंता और बीमारियों की जड़ परिग्रह है। चूँकि गृहस्थ पूर्ण रूप से अपरिग्रही तो हो नहीं सकता, किंतु आवश्यकता से अधिक भी एकत्रित नहीं करे। अधिक संग्रह नहीं करना चाहिए; दान देने के लिए भी संग्रह नहीं होना चाहिए। सीमित संसाधनों में रहने से अपनी आवश्यकता की पूर्ति तो हो ही जाती है दूसरों का अधिकार भी नहीं छिनता। समाज में समानता का वातावरण बना रहता है जिससे अपराध नहीं बढ़ते। अतः धन-धान्यादि वस्तुओं की सीमा निश्चित करना तथा उनमें भी कम आसक्ति रखना ही अपरिग्रहाणुव्रत है। वर्तमान जीवन में एक बहुत बड़ी विडंबना है कि हम धार्मिक तो हो जाते हैं किंतु नैतिक नहीं हो पाते हैं। क्या नैतिकता के बिना धार्मिकता पूर्ण है? मेरी तो मान्यता है कि एक सामाजिक गृहस्थ मनुष्य के लिए जिस प्रकार वस्त्र पहनना ज़रूरी है उसी प्रकार नैतिक आचरण भी ज़रूरी है। धार्मिकता आभूषण है। नैतिकता के बिना धार्मिकता वैसी ही है जैसे वस्त्रों के बिना आभूषण। अणुव्रतों में धार्मिकता के साथसाथ पूर्ण नैतिक बनने का भी उपदेश है। इसी कारण आज के सामाजिक परिदृश्य में अणुव्रत वे छोटे-छोटे व्रत हैं जिनका पालन करके राष्ट्र, समाज, परिवार तथा स्वयं व्यक्ति सुखी हो सकता है। 00 जैन धर्म-एक झलक
SR No.007199
Book TitleJain Dharm Ek Zalak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnekant Jain
PublisherShantisagar Smruti Granthmala
Publication Year2008
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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