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सम्बन्धशक्ति
४७. सम्बन्धशक्ति स्वभावमात्रस्वस्वामित्वमयी संबंधशक्तिः ।
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आवश्यकता नहीं है। न केवल आत्मद्रव्य स्वयं के आधार पर है; अपितु उसका स्वाभाविक परिणमन, निर्मल परिणमन भी पूर्णत: स्वयं के आधार पर ही प्रतिष्ठित है । सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र संबंधी निर्मल परिणमन का भी एकमात्र आत्मा ही आधार है; क्योंकि उसमें अधिकरण नामक एक ऐसी शक्ति है कि जिसके कारण यह सब कुछ सहज ही होता है, स्वाधीनपने ही होता है।
प्रश्न : शास्त्रों में तो छहों द्रव्यों का आधार आकाश को कहा है और आत्मा भी एक द्रव्य है; अत: उसका आधार भी आकाश ही होना चाहिए ?
उत्तर : आकाश को सभी द्रव्यों का आधार का कथन निमित्त की अपेक्षा से किया गया कथन है; अत: असद्भूतव्यवहारनय का उपचरित कथन है । यहाँ निश्चयनय की अपेक्षा परमसत्य का प्रतिपादन है; उपादान की अपेक्षा प्रतिपादन है ।
व्यवहार से भिन्न षट्कारक की भी चर्चा आती है; पर वह सभी कथन असद्भूत होता है, उपचरित होता है, असत्यार्थ होता है।
यहाँ अभिन्नषट्कारक की चर्चा चल रही है। अतः परमसत्य यही है कि आत्मा अपनी अधिकरणशक्ति के कारण स्वयं प्रतिष्ठित है, उसके परिणमन में भी स्वयं का ही आधार है ॥ ४६ ॥
इसप्रकार अधिकरणशक्ति का निरूपण करने के उपरान्त अब संबंधशक्ति की चर्चा करते हैं।
४७वीं सम्बन्धशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है अपना स्वभाव ही अपना स्वामी है - ऐसी स्वस्वामित्वमयी संबंध - शक्ति है।
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