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४७ शक्तियाँ और ४७ नय ४४-४५. सम्प्रदानशक्ति और अपादानशक्ति स्वयं दीयमानभावोपेयत्वमयी सम्प्रदानशक्तिः। उत्पादव्ययालिंगितभावापायनिरपायधुवत्वमयी अपादानशक्तिः। साधना के लिए, अनंत अतीन्द्रिय आनन्द प्राप्त करने के लिए न तो दीनता से पर की ओर देखने की आवश्यकता है और न शुभभावों में धर्म मानकर उनमें उपादेयबुद्धि रखकर उन्हें करने की आवश्यकता है।
तात्पर्य यह है कि यह भगवान आत्मा न तो पर का कर्ता है, न कर्म और न करण (साधन) ही है तथा परपदार्थ भी इस भगवान आत्मा के कर्ता, कर्म और करण नहीं हैं। इसप्रकार न तो इसके माथे पर पर के कर्तृत्व का भार ही है और न पर से कुछ अपेक्षा ही है।
इसप्रकार करणशक्ति की चर्चा करने के उपरान्त अब सम्प्रदानशक्ति और अपादानशक्ति की चर्चा करते हैं।॥४३॥ .
इस ४४वीं सम्प्रदानशक्ति और ४५वीं अपादानशक्ति का स्वरूप आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
सम्प्रदानशक्ति अपने द्वारा दिये जानेवाले भाव की उपेयत्वमयी है। अपादानशक्ति उत्पाद-व्यय से आलिंगित भाव के नाश होने से हानि को प्राप्त न होनेवाली ध्रुवत्वमयी है। ___ यहाँ कारक संबंधी छह शक्तियों की चर्चा चल रही है। सामान्यतः छह कारकों का स्वरूप इसप्रकार है - जो कार्य को करता है, वह कर्ता नामक कारक है और जो कार्य है, वह कर्मकारक है। जिसके द्वारा कार्य हो, वह साधन करण कारक कहा जाता है। कार्य का लाभ जिसे प्राप्त हो, वह सम्प्रदान कारक है और कार्य जिसमें से उत्पन्न हो, वह अपादान कारक कहा जाता है तथा कार्य के आधार को अधिकरण कारक कहते हैं। ___ यह तो सर्वविदित ही है कि इन शक्तियों के प्रकरण में निर्मलपर्यायरूप क्रिया को शामिल किया जाता है। अतः अब प्रश्न यह है कि