________________
१७
सर्वदर्शित्व और सर्वज्ञत्वशक्ति __किसी वस्तु को जानने के पहले जो सामान्य अवलोकन होता है, उसे दर्शन कहा जाता है। यह पहले और बाद का भेद भी छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) के ही होता है, सर्वदर्शी-सर्वज्ञ भगवान के नहीं; क्योंकि सर्वज्ञ भगवान के स्वपर समस्त वस्तुओं संबंधी दर्शनोपयोग और ज्ञानोपयोग एकसाथ ही होते हैं। चूँकि यहाँ दृशि और ज्ञानशक्ति की बात नहीं है, यहाँ तो सर्वदर्शित्व और सर्वज्ञत्वशक्ति की बात चल रही है; अत: यहाँ पहले और बाद का भेद किए बिना यह कहना ही ठीक है कि सामान्यावलोकन दर्शन है और विशेषावलोकन ज्ञान है। ___ ध्यान रहे कि अवलोकन शब्द अकेले दर्शन का वाचक नहीं; अपितु दर्शन (देखने) और ज्ञान (जानने) दोनों को ही अवलोकन कहा जाता है।
इसीप्रकार प्रकाशन शब्द का उपयोग देखने और जानने – दोनों ही अर्थों में होता है; क्योंकि दोनों ही शक्तियाँ समानरूप से स्वपरप्रकाशक हैं और दोनों का विषय भी लोकालोक है। ___ लोकालोक को देखने-जानने के कारण यह आत्मा लोकालोकमय नहीं हो जाता, आत्ममय ही रहता है-यह बताने के लिए ही दोनों के स्वरूप में आत्मदर्शनमयी और आत्मज्ञानमयी पदों का प्रयोग किया गया है। तात्पर्य यह है कि दोनों ही शक्तियाँ आत्मामय हैं, लोकालोक मय नहीं।
यद्यपि दृशि और ज्ञानशक्ति में देखने-जानने की बात आ गई थी; तथापि सबको देखने-जानने की बात नहीं आई थी। इसकारण ही यहाँ समस्त लोकालोक को देखने-जाननेरूप परिणमित होने की बात को सर्वदर्शित्व और सर्वज्ञत्वशक्ति के रूप में कहा जा रहा है।
इन शक्तियों के नाम से ही बात स्पष्ट हो जाती है कि यहाँ स्वपर सभी को देखने-जानने की बात है; क्योंकि इनके नाम ही सर्वदर्शित्व और सर्वज्ञत्वशक्ति हैं।