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४७ शक्तियाँ और ४७ नय भगवान आत्मा का चैतन्यभावमय होना, ज्ञानानंदस्वभावरूप होना द्रव्यगत स्वभाव है; अत: नियतस्वभाव है और राग-द्वेष-मोहरूप होना, मतिज्ञानादिरूप होना पर्यायगत स्वभाव है; अत: अनियतस्वभाव है। ___ एकमात्र परमपारिणामिक भाव आत्मा का नियतस्वभाव है, शेष सभी भाव - औपशमिक, क्षायिक, क्षायोमशमिक एवं औदयिक भाव - आत्मा के अनियतस्वभाव हैं; क्योंकि परमपारिणामिक भाव को छोड़कर शेष कोई भी भाव त्रिकाल एकरूप नहीं रहते। ___ भगवान आत्मा में उत्पन्न होनेवाले मोह-राग-द्वेष व मनुष्यादि
औदयिकभाव, मतिज्ञानादि क्षयोपशमभाव, केवलज्ञानादि क्षायिकभाव सदा एक से नहीं रहते; कभी राग होता है, कभी द्वेष होता है; कभी राग मंद होता है, कभी तीव्र होता है; कभी आत्मा मनुष्यपर्यायरूप होता है, कभी देवपर्यायरूप होता है; कभी मतिज्ञानी होता है, कभी केवलज्ञानी होता है - यह सब भगवान आत्मा के अनियतस्वभाव के कारण ही होता है। नियतस्वभाव के कारण भगवान आत्मा सदा एकरूप रहता है, एक रहता है और अनियतस्वभाव के कारण सदा बदलता रहता है, परिवर्तनशील रहता है।
तात्पर्य यह है कि भगवान आत्मा का त्रिकालीस्वभाव नियतस्वभाव है और क्षणिकस्वभाव अनियतस्वभाव है। कभी न बदलनेवाला स्वभाव नियतस्वभाव है और प्रतिसमय बदलनेवाला स्वभाव अनियतस्वभाव है।
सभी पदार्थों के समान भगवान आत्मा भी प्रतिसमय बदलकर कभी नहीं बदलता है और कभी नहीं बदलकर भी प्रतिसमय बदलता रहता है। भगवान आत्मा की इन दोनों विशेषताओं को स्पष्ट करना ही नियतिनय और अनियतिनय का मूल प्रयोजन है।
भगवान आत्मा में अन्य अनन्त धर्मों के समान एक नियति नामक धर्म भी है और एक अनियति नामक धर्म भी है। नियति नामक धर्म के कारण भगवान आत्मा सदा चैतन्यरूप रहता है, जड़रूप नहीं होता