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समाधि-साधना और सिद्धि मनुष्यपर्याय, उत्तमदेश, सुसंगति, श्रावककुल, सम्यग्दर्शन, संयम, रत्नत्रय की आराधना आदि तो उत्तरोत्तर और भी महादुर्लभ है जो कि हमें हमारे सातिशय पुण्योदय से सहज प्राप्त हो गये हैं। तो क्यों न हम अपने इस इन अमूल्य क्षणों का सदुपयोग कर लें। अपने इस अमूल्य समय को विकथाओं में व्यर्थ बरबाद करना कोई बुद्धिमानी नहीं है। इस संदर्भ में भूधरकवि कृत निम्न पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं - .
जोई दिन कट, सोई आयु में अवश्य घटै; बूंद-बूंद बीते, जैसे अंजुक्ति को जल है। देह नित छीन होत, नैन तेजहीन होत; जीवन मलीन होत, छीन होत बल है। आवै. जरा नेरी, तकै अंतक अहेरी; आबै परभौ नजीक, जात नरभौ निफल है। मिलकै मिलापी जन, पूछत कुशल मेरी;
ऐसी दशा मांहि, मित्र काहे की कुशल है। इसप्रकार हम प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं कि तत्त्वज्ञान के बिना आत्मज्ञान के बिना संसार में कोई सुखी नहीं है, अज्ञानी न तो समता, शान्ति व सुखपूर्वक जीवित ही रह सकता है और न समाधिमरण पूर्वक मर ही सकता है। ___अतः हमें आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए मोक्षमार्ग में प्रयोजनभूत दो-तीन प्रमुख सिद्धान्तों को समझना अति आवश्यक है। एक तो यह कि - भाग्य से अधिक और समय से पहले किसी को कभी कुछ नहीं मिलता और दूसरा यह कि - न तो हम किसी के सुख-दुःख के दाता हैं, भले-बुरे के कर्ता हैं और न कोई हमें भी सुख-दुःख दे सकता है, हमारा भला-बुरा कर सकता है।