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' समाधि-साधना और सिद्धि
पहाड़ से माथा मारना नहीं है? यह तो उनका ऐसा अरण्य रुदन है, जिसे पशु-पक्षी और जंगल के जानवरों के सिवाय और कोई नहीं सुनता। __वैसे तो जैनदर्शन में श्रद्धा रखनेवाले सभी का यह कर्तव्य है कि वे तत्वज्ञान के आलम्बन से जगत के ज्ञाता-दृष्टा बनकर रहना सीखें; क्योंकि सभी को शान्त व सुखी होना है, आनंद से रहना है, पर वृद्धजनों का तो एकमात्र यही कर्तव्य रह गया है कि जो भी हो रहा है, वे उसके केवलज्ञाता-दृष्टा ही रहें, उसमें रुचि न लें, राग-द्वेष न करें; क्योंकि वृद्धजन यदि अब भी सच्चे सुख के उपायभूत समाधि का साधन नहीं अपनायेंगे तो कब अपनायेंगे? फिर उन्हें यह स्वर्ण अवसर कब मिलेगा? उनका तो अब अपने अगले जन्म-जन्मान्तरों के बारे में विचार करने का समय आ ही गया है। वे उसके बारे में क्यों नहीं सोचते?
इस वर्तमान जीवन को सुखी बनाने और जगत को सुधारने में उन्होंने अबतक क्या कुछ नहीं किया? बचपन, जवानी और बुढ़ापा - तीनों अवस्थायें इसी उधेड़बुन में ही तो बिताईं हैं, पर क्या हुआ? जो कुछ किया, वे सब रेत के घरोंदे ही तो साबित हुए, जो बनाते-बनाते ही ढह गये और हम हाथ मलते रह गये; फिर भी इन सबसे वैराग्य क्यों नहीं हुआ? ___आपको यह ज्ञात होना चाहिए कि यह मनुष्य पर्याय, उत्तम कुल व जिनवाणी का श्रवण उत्तरोत्तर दुर्लभ है। अनन्तानंत जीव अनादि से निगोद में हैं, उनमें से कुछ भली होनहार वाले बिरले जीव भाड़ में से उचटे विरले चनों की भाँति निगोद से एकेन्द्रिय आदि पर्यायों में आते हैं। वहाँ भी वे लम्बे काल तक पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं वनस्पतिकायों में जन्म-मरण करते रहते हैं। उनमें से भी कुछ विरले जीव ही बड़ी दुर्लभता से दो-इन्द्रिय, तीन-इन्द्रिय, चार इन्द्रिय एवं पंचेन्द्रिय पर्यायों में आते हैं। यहाँ तक तो ठीक; पर इसके उपरांत