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समाधि-साधना और सिद्धि '
किसी कवि ने कहा है - तुष्टो हि राजा यदि सेवकेभ्यः, भाग्यात् परं नैव ददाति किंचित्। अहिर्निशिं वर्षति वारिवाह तथापि पत्र वितयः पलाशः॥
राजा सेवक पर कितना ही प्रसन्न क्यों न हो जाये; पर वह सेवक को उसके भाग्य से अधिक धन नहीं दे सकता। दिन-रात पानी क्यों न बरसे, तो भी ढाक की टहनी में तीन से अधिक पत्ते नहीं निकलते।
यह पहला सिद्धान्त निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध की अपेक्षा है। इसका आधार जैनदर्शन की कर्म व्यवस्था है। ___ दूसरा सिद्धान्त 'वस्तु स्वातंत्र्य' का सिद्धान्त है जो कि जैनदर्शन
का प्राण है। इसके अनुसार ‘जगत का प्रत्येक वस्तु स्वभाव से ही स्वतंत्ररूप से परिणमनशील है, पूर्ण स्वावलम्बी है।
जब तक यह जीव इस वस्तुस्वातंत्र्य के इस सिद्धांत को नहीं समझेगा और क्रोधादि विभाव भावों को ही अपना स्वभाव मानता रहेगा; अपने को पर का और पर को अपना कर्ता-धर्ता मानता रहेगा तबतक समता एवं समाधि का प्राप्त होना संभव नहीं है।
देखो, “लोक के प्रत्येक पदार्थ पूर्ण स्वतंत्र और स्वावलम्बी हैं। कोई भी द्रव्य किसी परद्रव्य के आधीन नहीं है। एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता-भोक्ता भी नहीं है।" ऐसी श्रद्धा एवं समझ से ही समता आती है, कषायें कम होती है, राग-द्वेष का अभाव होता है। बस, इसीप्रकार के श्रद्धान-ज्ञान व आचरण से आत्मा निष्कसाय होकर समाधिमय जीवन जी सकता है।
यहाँ कोई व्यक्ति झुंझलाकर कह सकता है कि - समाधि... समाधि... समाधि...? अभी से इस समाधि की चर्चा का क्या काम?