________________ यहाँ बौद्धों का कहना है कि काल के व्यवधान में भी कार्य कारण भाव देखा ही जाता है जैसे कि जाग्रत दशा और प्रबुद्ध दशा भावी प्रबोध (ज्ञान) में तथा मरण और अनिष्ट में कार्य कारण भाव देखा जाता है। आचार्य उनके इस कथन का परिहार करने के लिए सूत्र कहते हैं - भाव्यतीतयोर्मरणजाग्रद्बोधयोरपि नारिष्टोद्बोधौ प्रतिहेतुत्वम्॥58॥ सूत्रान्वय : भाव्यतीतयोः = भावी और अतीत के, मरण = मरण, जाग्रद = सोने से पूर्व की अवस्था, बोधयोः = दोनों ज्ञानों का, अपि = भी, न = नहीं, अरिष्ट = अपशकुन, उद्बोधौ = दोनों का ज्ञान, प्रति = और, हेतुत्वम् = हेतुपना। सूत्रार्थ : भावी मरण और अतीत के जाग्रत बोध के भी अपशकुन और जाग्रत अवस्था के बोध (उद्बोध) के प्रति कारणपना नहीं है। संस्कृतार्थ : ननु कालव्यवधानेऽपि कार्यकारणभावो दृश्यते एव। यथा जाग्रत्प्रबुद्धदशा भाविप्रबोधयो मरणारिष्टयो र्वा कार्यकारणभाव इति चेन्न भविष्यत्कालीनमरणस्यापशकुनं प्रति, भूतकालीनजाग्रद्बोधस्य प्रबुद्धदशा भाविबोधं प्रति कारणत्वाभावात्। टीकार्थ : बौद्धों का कथन है कि काल के व्यवधान में भी कार्यकारण भाव देखा ही जाता है, जैसे कि जाग्रतदशा और प्रबुद्धदशाभावी प्रबोध (ज्ञान) में तथा मरण तथा अपशकुन में कार्यकारण भाव देखा जाता है। यदि ऐसा कहते हैं तो यह ठीक नहीं है, आगामी काल में होने वाले मरण को अप शकुनादि का कारण तथा सोने से पूर्व समय के ज्ञान को प्रातःकाल के ज्ञान का कारण नहीं होने से। विशेष : बौद्धों का कहना है कि रात्रि में सोते समय का ज्ञान प्रातःकाल के ज्ञान में कारण होता है और आगामी काल में होने वाला मरण इस समय में होने वाले अरिष्टों (अपशकुनों)का कारण है, अतः काल के व्यवधान में भी कार्य कारण भाव होता है। अब जैनाचार्य कहते हैं कि दोनों में कार्य-कारण भाव बतलाना ठीक नहीं है, क्योंकि कार्य-कारण भाव तभी संभव है जबकि कारण के सद्भाव में 96