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________________ संस्कृतार्थ : उपलब्धिरूपो हेतु ढिविधः - अविरुद्धोपलब्धिः, विरुद्धोपलब्धिश्चेति। अनुपलब्धिरूपो हेतुरपि द्विविधः अविरुद्धानुपलब्धिः, विरुद्धानुपलब्धिश्चेति। विशेष : इनमें पहला विधि साधक है और दूसरा प्रतिषेध साधक है। इसी प्रकार द्वितीय पक्ष में पहला निषेधसाधक है और दूसरा विधि साधक है। इस प्रकार उपलब्धि और अनुपलब्धिरूप दोनों हेतु विधि और निषेध दोनों के साधक होते हैं। इस समय उपलब्धि के भी संक्षेप से विरुद्ध-अविरुद्ध भेद से दो भेद बतलाते हुए अविरुद्धोपलब्धि के विधि को सिद्ध करने में विस्तार से भेद कहते हैं - अविरुद्धोपलब्धिर्विधौषोढाव्याप्यकार्यकारणपूर्वोत्तरसहचर भेदात्॥ 55 // सूत्रान्वय : अविरुद्धोपलब्धिः = अविरुद्धोपलब्धि, विधौ = विधि (साधन दशा में), षोढा = छह, व्याप्यः = व्याप्य, कार्य : = कार्य, कारणः = कारण, पूर्वचर = पूर्वचर, उत्तरचर = उत्तरचर, सहचर = सहचर, भेदात् = भेद से। सूत्रार्थ : विधि साधन की दशा में अविरुद्धोपलब्धि व्याप्य, कार्य, कारण, पूर्व और सहचर के भेद से छह प्रकार की है। संस्कृतार्थ : अविरुद्धोपलब्धिरूपो हेतुः विधौ साध्ये सति षट्प्रकारो भवति / व्याप्यरूपः कार्यरूपः कारणरूपः पूर्वचररूपः उत्तरचररूपः, सहचर रूपश्चेति। टीकार्थ : अविरुद्धोपलब्धि रूप हेतु विधि के साध्य होने पर छह प्रकार की होती है। व्याप्यरूप, कार्यरूप, पूर्वचररूप, उत्तरचररूप और सहचररूप इस प्रकार से 6 भेद हैं। विशेष : सूत्र पठित पूर्व और सहपद का द्वन्द्व समास करना है, पश्चात् पूर्व और सहपद के साथ चर शब्द का अनुकरण निर्देश करना इस प्रकार द्वन्द्व समास से पीछे सुना गया चर शब्द प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए। तदनुसार यह अर्थ होता है पूर्वचर, उत्तरचर और सहचर का पश्चात् व्याप्य 92
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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