________________ सूत्रार्थ : उपनीयते. पुनरुच्यते इत्युपनयः पक्षे हेतोरूपसंहार उपनय इत्यर्थः। __ संस्कृतार्थ : 'उपनीयते पुनरुच्यते इति उपनयः' यह व्युत्पत्ति है पक्ष में हेतु के दुहराने को उपनय कहते हैं। विशेष : यहाँ पर पक्ष इस पद का अध्याहार करना चाहिए। तब यह अर्थ होता है कि हेतु का पक्ष धर्मरूप से उपसंहार करना अर्थात् उसी प्रकार यह धूम वाला है इस प्रकार से हेतु का दुहराना उपनय है। निगमन का स्वरूप या लक्षण कहते हैं - प्रतिज्ञायास्तु निगमनम्॥47॥ सूत्रान्वय : प्रतिज्ञाया = प्रतिज्ञा के, तु = और, निगमन = निगमन। सूत्रार्थ : प्रतिज्ञा के दोहराने को निगमन कहते हैं। संस्कृतार्थ : पक्षस्य साध्यधर्मविशिष्टत्वेन प्रदर्शनं निगमनं प्रोच्यते। टीकार्थ : पक्ष के साध्यधर्म विशिष्टता के साथ दिखलाना निगमन कहा जाता है। विशेष : सूत्र में उपसंहार पद की अनुवृत्ति की गई है प्रतिज्ञा का उपसंहार अर्थात् साध्य धर्म विशिष्टता के साथ कि धूम वाला होने से यह अग्नि वाला है, इस प्रकार प्रतिज्ञा दुहराना निगमन है। . 238. शास्त्र में दृष्टान्त आदि कहना ही चाहिए, ऐसा नियम नहीं माना गया है, फिर आचार्यों ने यहाँ पर उन तीनों का कथन क्यों किया ऐसी शंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि स्वयं नहीं स्वीकार करके भी (शिष्य)प्रतिपाद्य के अनुरोध से जिनमत का अनुसरण करने वाले आचार्यों ने प्रयोग की परिपाटी को स्वीकार किया है। जिन्होंने उन उदाहरण आदि का स्वरूप नहीं जाना है, वे लोग प्रयोग परिपाटी को कर नहीं सकते हैं। अतः उनकी जानकारी के लिए उनका स्वरूप भी शास्त्र में कहना ही चाहिए, इसलिए यहाँ पर उदाहरणादिक का स्वरूप आचार्य ने कहा है। 87.