SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संस्कृतार्थ : केवलोदाहरणप्रयोगस्य संशयजनकत्वाभावे उपनय निगमन प्रयोगः किमर्थं विधीयते ? अतो निश्चीयते यदुदाहरणमात्रप्रयोगात्संशयोऽवश्यं जायते। टीकार्थ : केवल उदाहरण के प्रयोग से संशय उत्पन्न नहीं होता तो उपनय और निगमन का प्रयोग क्यों किया जाता ? इसलिए इससे निश्चय होता है कि उदाहरण मात्र के प्रयोग से संशय होता है। . विशेष : उदाहरण यदि साध्य विशिष्ट धर्मी में साध्य का साधन करने में संदेह युक्त न करता तो किस कारण उपनय और निगमन का प्रयोग किया जाता। योग कहता है कि उपनय और निगमन अनुमान के अंग हैं, उनका प्रयोग न करने पर असंदिग्ध रूप से साध्य का ज्ञान नहीं हो सकता है ? उक्त कथन का निषेध करने के लिए कहते हैं - नच ते तदंगे, साध्यधर्मिणि हेतुसाध्ययोर्वचनादेवासंशयात्॥40॥ सूत्रान्वय : न = नहीं, च = और, ते = वे दोनों उपनय और निगमन, तत् = उसके (अनुमान), अंगे = अंग, साध्यधर्मिणि = साध्यधर्मी में हेतुसाध्ययोः = हेतु और साध्य के, वचनात् = वचन से, असंशयात् = संशय नहीं रहता। सूत्रार्थ : उपनय और निगमन अनुमान के अंग नहीं हैं, क्योंकि हेतु और साध्य के बोलने से ही संशय नहीं रहता है। संस्कृतार्थ : ननूपनयनिगमनयोरप्यनुमानांगत्वमेव, तदप्रयोगे निःसंशयसाध्य सम्वित्तेरयोगादिति चेन्न हेतुसाध्ययोः प्रयोगादेव साध्यधर्मिणि संशयस्य निराकृतत्वात् उपनयनिगमनयोरनुमानांगत्वाभावात्। टीकार्थ : कोई कहता है उपनय और निगमन को भी अनुमान का अंगपना ही है उनके प्रयोग के बिना निःसंशय साध्य के ज्ञान का योग नहीं है। ऐसा कहना ठीक नहीं है क्योंकि हेतु और साध्य के प्रयोग से ही साध्य धर्मी में संशय का निराकरण होने से उपनय और निगमन का अनुमान के अंगपने का अभाव है। 82
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy