________________ धर्मी। संस्कृतार्थ : व्याप्तिकालापेक्षया धर्म एव साध्यो भवति। परन्तु अनुमान प्रयोगापेक्षया धर्मविशिष्टो धर्मी साध्यत्वेन प्रयुज्यते। टीकार्थ : व्याप्ति प्रयोग के समय धर्म ही साध्य होता है और अनुमान प्रयोग के समय धर्म से विशिष्ट धर्मी साध्यपने से प्रयुक्त होता है। विशेष : जहाँ-जहाँ धूम होता है वहाँ-वहाँ अग्नि होती है और जहाँ-जहाँ अग्नि नहीं होती वहाँ धूम भी नहीं होता। इस प्रकार से जब किसी शिष्यादि को साध्य-साधन का ज्ञान कराया जाता है, तब उसे व्याप्ति काल कहते हैं / इस व्याप्ति काल में अग्नि रूप धर्म ही साध्य होता है इस पर्वत में अग्नि है क्योंकि वह धूम वाला है, इस प्रकार से अनुमान के प्रयोग करने को प्रयोग काल कहते हैं, उस समय अग्निरूप धर्म से विशिष्ट पर्वत ही साध्य होता है। अब आचार्य इसी धर्मी का पर्यायवाची दूसरा नाम कहते हैं - पक्ष इति यावत्॥22॥ सूत्रार्थ : उसी धर्मी को पक्ष कहते हैं। पक्ष इस प्रकार धर्मी का ही पर्यायवाची नाम है। 200. धर्म और धर्मी के समुदाय को पक्ष कहते हैं। ऐसा स्वरूप क्यों नहीं कहा गया सूत्र में ? यद्यपि सूत्रकार ने केवल धर्मी को पक्ष कहा है, तथापि उनका अभिप्राय साध्य धर्म से विशिष्ट धर्मी को पक्ष कहने का है, इससे धर्म-धर्मी के समुदाय का अर्थ आ ही जाता है। अतः पूर्व सिद्धान्त से कोई विरोध नहीं है। बौद्धमतानुसार यह ज्ञात हुआ कि धर्मी का प्रतिभास विकल्प बुद्धि से होने के कारण उसकी सत्ता वास्तविक नहीं है ? इस कथन को निरस्त करने के लिए सूत्र कहते हैं - प्रसिद्धो धर्मी॥23॥ सूत्रान्वय : प्रसिद्ध = प्रमाण से, धर्मी = धर्मी (पक्ष)। 68