________________ सूत्रान्वय : यथा = जैसे, सः = वह, एव = ही, अयम् = यह, देवदत्तः = देवदत्त, गो = गाय, सदृशः = समान, गवयः = गवय, विलक्षणः = भिन्न, महिषः = भैंस, इदम् = यह, अस्मात् = इससे, दूरं = दूर, वृक्षः = वृक्ष, अयम् = यह, इत्यादि = इस प्रकार और। सूत्रार्थ : जैसे - यह वही देवदत्त है (एकत्व प्रत्यभिज्ञान), गाय के समान नील गाय होती है (सादृश्य प्रत्यभिज्ञान) गाय से भिन्न भैंसा होता है (विलक्षण प्रत्यभिज्ञान) यह इससे दूर है (प्रतियोगी प्रत्यभिज्ञान), यह वृक्ष है, (सामान्य प्रत्यभिज्ञान) इत्यादि। संस्कृतार्थ : एकत्वप्रत्यभिज्ञानस्य स एवायं देवदत्तः, सादृश्य प्रत्यभिज्ञानस्य गोसदृशो गवयः। वैलक्षण्यप्रत्यभिज्ञानस्य गोविलक्षणो महिषः प्रातियौगिक प्रत्यभिज्ञानस्य इदमस्मादूरमिति क्रमशः दृष्टान्ता विज्ञेयाः (प्रत्येतव्याः ) / टीकार्थ : एकत्व प्रत्यभिज्ञान का यह वही देवदत्त है, सादृश्य प्रत्यभिज्ञान का गाय के समान नीलगाय है। वैलक्षण प्रत्यभिज्ञान का गाय से भिन्न भैंसा, प्रातियौगिक प्रत्यभिज्ञान का यह इससे दूर है इस प्रकार क्रमशः दृष्टान्त जानना चाहिए। 155. सूत्र में आदि शब्द से क्या लेना है ? दूध और जल का भेद करने वाला हंस होता है, छह पैर का भ्रमर माना गया है। तत्त्वज्ञों को सात पत्तों वाला विषमच्छद नामक वृक्ष जानना चाहिए। 5 वर्णों वाला मेचक नामक रत्न होता है, विशाल स्तन वाली युवती होती है, एक सींग वाला गैंडा कहा जाता है, आठ पैर वाला अष्टापद होता है और सुंदर सय (गर्दन के बाल) से युक्त सिंह होता है। 156. इस सूत्र का कहने का अभिप्राय क्या है ? इसी प्रकार के हंस आदि को देखकर उसी रूप में जब सत्यापित करता है तब यह संकलन ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है क्योंकि दर्शन और स्मरणरूप कारण सब जगह समान हैं अन्य मतावलम्बियों में तो इन्हें भिन्न-भिन्न प्रमाण मानना पड़ेगा उपमानादि में इनका अन्तर्भाव नहीं होता। 55