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________________ नहीं रहा, क्योंकि ऐसा कोई भी व्यक्ति नहीं है जो अपनी इन्द्रियों से अपनी ही इन्द्रियों को जान लेवे। इस प्रकार इन्द्रियों के साथ व्यभिचार दोष आता है। 138. व्यभिचार किसे कहते हैं ? हेतु के रहने पर साध्य के न रहने को व्यभिचार दोष कहते हैं। अब सूत्रकार अतीन्द्रिय जो मुख्य प्रत्यक्ष है, उसका स्वरूप कहते हैंसामग्री विशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेषतो मुख्यम्॥11॥ सूत्रान्वय : सामग्री = द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावरूप, विशेष = विशेषता से, विश्लेषित =दूर हो गये हैं, अखिल = सम्पूर्ण, आवरणम् = आवरण, अतीन्द्रियम् = इन्द्रियातीत, अशेषतः = पूर्णतया, मुख्यम् = मुख्य। नोट : सूत्र में विशद और ज्ञान इन दो पदों की अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए। सूत्रार्थ : सामग्री की विशेषता से दूर हो गये हैं, समस्त आवरण जिसके ऐसे अतीन्द्रिय और पूर्णतया विशद ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं। संस्कृतार्थ : सामग्री द्रव्यक्षेत्रकालभावलक्षणा, तस्याः विशेषः समग्रता लक्षणः तेन विश्लेषितान्यखिलान्यावरणानि येन तत्तथोक्तम्, इन्द्रियाण्यतिक्रान्तम् अतीन्द्रियम् / तथा च यज्ज्ञानं सामग्रीविशेषनिराकृतसमस्त ज्ञानावरणादिकर्मत्वात्, इन्द्रियागोचरत्वाच्च साकल्येन निर्मलं जायते / तन्मुख्यप्रत्यक्षं पारमार्थिकप्रत्यक्षं वा प्रोच्यते इति भावः। टीकार्थ : योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावरूप लक्षण वाली सामग्री उसका विशेष सर्वकारण-कलापों की परिपूर्णता है। उस सामग्री विशेष से विघटित कर दिये हैं, अखिल (समस्त) आवरण जिसमें ऐसा वह ज्ञान है। इन्द्रियों को अतिक्रमण (उल्लंघन) करके (अर्थात् इन्द्रियों की सहायता के बिना जानने में समर्थ समस्त ज्ञेय पदार्थों को अतः अतीन्द्रिय है।) जो ज्ञान सामग्री विशेष एवं समस्त ज्ञानावरणादि कर्मों को निराकृत करने से वह मुख्य प्रत्यक्ष या पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहा जाता है - यह भाव है सूत्र का। ___48
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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