SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 37
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अथ द्वितीयः परिच्छेदः अब आचार्य भगवन् प्रमाण की स्वरूप विप्रतिपत्ति का निराकरण करके संख्या विप्रतिपत्ति का निराकरण करते हुए प्रमाण के समस्त भेदों के संदर्भ का संग्रह करने को और प्रमाण की संख्या का प्रतिपादन करने वाला सूत्र कहते हैं - तवेधा॥1॥ सूत्रान्वय : तत् = वह प्रमाण, द्वेधा = दो प्रकार का। सूत्रार्थ : वह प्रमाण दो प्रकार का है। संस्कृतार्थ : प्रमाणस्य द्वावेव भेदौ विद्यते। अन्येषाम्प्रभेदानामनयोर्द्वयोरे वान्तर्भावात्। टीकार्थ : प्रमाण के दो ही भेद हैं। अन्य प्रभेदों का इन दोनों में ही अन्तर्भाव हो जाता है। 90. सूत्र में तत् शब्द से क्या प्रयोजन है ? ____ तत् शब्द से प्रमाण का परामर्श किया गया है। 91. किस प्रमाण का परामर्श किया गया है ? जिसका स्वरूप प्रथम परिच्छेद से जान लिया गया है। 92. प्रमाण दो ही प्रकार का क्यों है ? क्योंकि प्रमाण के समस्त भेदों का इन दो भेदों में अन्तर्भाव हो जाता है। 93. द्वितीय सूत्र किसलिए कहा जा रहा है ? क्योंकि प्रमाण के 2 भेद प्रत्यक्ष और अनुमान प्रकार से भी संभव हैं, इस प्रकार बौद्धों की आशंका का निराकरण करने के लिए प्रमाण के समस्त भेदों का संग्रह करने वाली संख्या को आचार्य सूत्र में कहते हैं। प्रमाण के दो भेदों का स्पष्टीकरण - प्रत्यक्षेतर भेदात्॥2॥ सूत्रान्वय : प्रत्यक्ष = प्रत्यक्ष प्रमाण, इतर = परोक्ष, भेदात् = भेद से। सूत्रार्थ : प्रत्यक्ष और इतर अर्थात् परोक्ष के भेद से प्रमाण दो प्रकार 35
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy