________________ किसी शंकाकार का कहना है कि यह कर्ता, कर्मादि की प्रतीति तो शब्द का उच्चारण मात्र ही है, वस्तु के स्वरूप बल से उत्पन्न नहीं हुई है अर्थात् वास्तविक नहीं है उसका उत्तर इस दसवें सूत्र में कहते हैं - शब्दानुच्चारणेऽपि स्वस्यानुभवनमर्थवत्॥ 10 // सूत्रान्वय : शब्द = शब्द का, अनुच्चारणे = उच्चारण नहीं करने पर, अपि = भी, स्वस्य = अपने आपका, अनुभवम् = अनुभवन, अर्थवत् = पदार्थ के समान। सूत्रार्थ : पदार्थ के समान शब्द का उच्चारण नहीं करने पर भी अपने आपका अनुभव होता है। संस्कृतार्थ : यथा प्रत्यक्षाणां घटपटादीनां वस्तूनां, परोक्षाणां मोदकादीनाम्वा तद्वाचक शब्दानुच्चारणेऽपि विचारमात्रेणैवालोकनमात्रेणैव वा ज्ञाने तदाकार अनुभवो जायते, यदिदममुकवस्तुं विद्यते इदं चामुकवस्तु / तथा अहमिदं करिष्ये, इदं मया जातम् इत्यादि विचारे (ज्ञाने) 'अहं मया' इत्यादि रूपेण यः स्वबोधः जायते, सः शब्दोच्चारणं विनैव जायते। टीकार्थ : जैसे प्रत्यक्ष घड़ा कपड़ा आदि वस्तुओं का और परोक्ष लड्ड आदि वस्तुओं का तद्वाचक शब्द के उच्चारण बिना भी विचार मात्र से ही या अवलोकन मात्र से ही ज्ञान में तदाकार अनुभव हो जाता है कि यह अमुक वस्तु है और यह अमुक वस्तु उसी प्रकार 'मैं यह करूँगा' मेरे द्वारा यह हुआ इत्यादि (विचारों) ज्ञान में और मेरे द्वारा इत्यादि रूप से जो आत्मा का बोध होता है वह शब्दोच्चारण बिना भी होता है। 68. शब्द किसे कहते हैं ? जो कहता है, उसे शब्द कहते हैं। .. 69. सूत्र का अभिप्राय रूप अर्थ क्या है ? जैसे घड़े वस्त्रादि को देखकर घड़ा - वस्त्र शब्द के बोले बिना भी उसका बोध होता है, उसी प्रकार अहं इत्यादि शब्द के बिना कहे ही अपने आपका भी बोध होता है। अतः कर्ता, कर्म की प्रतीति केवल शाब्दिक नहीं किन्तु वास्तविक मानना चाहिए। 30