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________________ अविवक्षित मान लिया जाता है और यही बात असत्त्वधर्ममुखेन वस्तु का अथवा वस्तुके असत्त्वधर्म का प्रतिपादन करते समय वस्तु की सत्त्वधर्म विशिष्टता अथवा वस्तु के सत्त्वधर्म के बारे में समझना चाहिए। इस प्रकार उभयधर्मों की विवक्षा और अविवक्षा के स्पष्टीकरण के लिए स्याद्वाद अर्थात् स्यात् की मान्यता को भी जैनदर्शन में स्थान दिया है। स्याद्वाद का अर्थ है किसी भी धर्म के द्वारा वस्तु का अथवा वस्तु के किसी भी धर्म का प्रतिपादन करते वक्त उसके अनुकूल किसी भी निमित्त, किसी भी दृष्टिकोण या किसी भी उद्देश्य को लक्ष्य में रखना और इस तरह से ही वस्तु की विरुद्धधर्मविशिष्टता अथवा वस्तु में विरुद्ध धर्म का अस्तित्त्व अक्षुण्ण रखा जा सकता है। यदि उक्त प्रकार के स्याद्वाद नहीं अपनाया जायेगा तो वस्तु की विरुद्धधर्म विशिष्टता का अथवा वस्तु में विरोधी धर्म का अभाव मानना अनिवार्य हो जायेगा और इस तरह से अनेकान्तवाद का भी जीवन समाप्त हो जायेगा और इस तरह से अनेकान्तवाद का भी जीवन समाप्त हो जायेगा। इस प्रकार अनेकान्तवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, सप्तभंगी और स्याद्वाद ये जैनदर्शन के अनूठे सिद्धान्त है। इनमें से एक प्रमाणवाद को छोड़कर बाकी के चार सिद्धान्तों को तो जैनदर्शन की अपनी ही निधि समझना चाहिए। समाप्त 204
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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