________________ 7. प्रमाणवचन के सप्तभंग वस्तु के सत्त्व और असत्त्व इन दो धर्मों में से सत्त्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन करना प्रमाण वचन का पहला रूप है। असत्त्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन करना प्रमाण वचन का दूसरा रूप है। सत्त्व व असत्त्व उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तु का प्रतिपादन करना प्रमाण वचन का तीसरा रूप है। सत्त्व और असत्त्व उभयधर्ममुखेन युगपत् (एकसाथ) वस्तु का प्रतिपादन करना असम्भव है, इसलिए अवक्तव्य नाम का चौथा रूप प्रमाण का वचन निष्पन्न होता है। उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तु के प्रतिपादन की असम्भवता के साथ-साथ सत्त्वमुखेन वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है, इस तरह से प्रमाण वचन का पाँचवां रूप निष्पन्न होता है। इसी प्रकार उभयधर्ममुखेनंयुगपत् वस्तु के प्रतिपादन की असम्भवता के साथ-साथ असत्त्वमुखेन भी वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है। इस तरह से प्रमाणवचन का छठा रूप बन जाता है और उभयधर्ममुखेनयुगपत् वस्तु के प्रतिपादन की असम्भवता के साथ-साथ उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तु का प्रतिपादन हो सकता है इस तरह से प्रमाणवचन का सातवाँ रूप बन जाता है। जैनदर्शन में इसको प्रमाणसप्तभंगी नाम दिया गया है। . . 8. नयवचन के सप्तभंग वस्तु के सत्त्व और असत्त्व इन दो धर्मों में से सत्त्वधर्म का प्रतिपादन करना नयवचन का पहला रूप है। उभयधर्मों का क्रमशः प्रतिपादन करना नयवचन का तीसरा रूप है और चूँकि उभयधर्मों का युगपत् प्रतिपादन करना असम्भव है अतः इस तरह से अवक्तव्य नाम का चौथा रूप नय वचन का निष्पन्न होता है। नयवचन के पाँचवें, छठे और सातवें रूपों से समान समझ लेना चाहिए। जैनदर्शन में नय वचन के इन सात रूपों को, नयसप्तभंगी नाम दिया गया है। __इन दोनों प्रकार की सप्तभंगियों में इतना ध्यान रखने की जरूरत है कि जब सत्त्व-धर्ममुखेन वस्तु के सत्त्वधर्म का प्रतिपादन किया जाता है तो उस समय वस्तु की असत्त्वधर्मविशिष्टता को अथवा वस्तु के असत्त्वधर्म को * असत्त्वधर्म का प्रतिपादन करना नयवचन का दूसरा रूप है। 203