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________________ भी मनुष्य में नहीं पाया जाता, अतः वह असम्भवलक्षणाभास है। यहाँ लक्ष्य के एकदेश में रहने के कारण शावलेयत्व अव्याप्त है, फिर भी उसमें असाधारण धर्मत्व रहता है शावलेयत्व गाय के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं रहता-गाय में ही पाया जाता है। परन्तु वह लक्ष्यभूत समस्त गायों का व्यावर्तक अश्वादि से जुदा करने वाला नहीं है, कुछ ही गायों को व्यावृत्त कराता है। इसलिए अलक्ष्यभूत अव्याप्त लक्षणाभास में असाधारणधर्म के रहने के कारण अतिव्याप्त भी है। इस तरह असाधारण धर्म को लक्षण कहने में असम्भव, अव्याप्ति और अतिव्याप्ति ये तीनों ही दोष आते हैं। अतः मिली हुई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु के अलग कराने वाले हेतु को लक्षण कहते हैं। यही लक्षण ठीक है। ___2. प्रमाण के प्रामाण्य का निर्णय प्रामाण्य का निश्चय - अभ्यस्त विषय में तो स्वतः होता है और अनभ्यस्त विषय में पर से होता है। तात्पर्य यह है कि प्रामाण्य की उत्पत्ति तो सर्वत्र पर से ही होती है, किन्तु प्रामाण्य का निश्चय परिचित विषय में स्वतः और अपरिचित विषय में परतः होता है। परिचित कई बार जाने हुए अपने गाँव के तालाब का जल वगैरह अभ्यस्त विषय हैं और अपरिचित-नहीं जाने हुए दूसरे गाँव के तालाब का जल वगैरह अनभ्यस्त विषय है। ज्ञान का निश्चय कराने वाले कारणों के द्वारा ही प्रामाण्य का निश्चय होना स्वतः है और उससे भिन्न कारणों से होना परतः है। उनमें से अभ्यस्त विषय में जल है' इस प्रकार ज्ञान होने पर ज्ञानस्वरूप के निश्चय के समय में ही ज्ञानगत प्रमाणता का भी निश्चय अवश्य हो जाता है। नहीं तो दूसरे ही क्षण में जल में सन्देहरहित प्रवृत्ति नहीं होती, किन्तु जल ज्ञान होने के बाद ही सन्देह रहित प्रवृत्ति अवश्य होती है। अतः अभ्यास दशा में तो प्रामाण्य का निश्चय स्वतः ही होता है। पर अनभ्यास दशा में जलज्ञान होने पर 'जलज्ञान मुझे हुआ' इस प्रकार से ज्ञान के स्वरूप का निश्चय हो जाने पर भी उसके प्रामाण्य का निश्चय अन्य (अर्थक्रियाज्ञान अथवा संवादज्ञान) से ही होता है। यदि प्रामाण्य का निश्चय अन्य से न हो, स्वतः हो तो जलज्ञान के बाद 197
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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