________________ लक्ष्य रूप धर्मी वचन का प्रतिपाद्य अर्थ एक नहीं है। धर्मवचन का प्रतिपाद्य अर्थ तो धर्म है और धर्मीवचन का प्रतिपाद्य अर्थ धर्मी है। ऐसी हालत में दोनों का प्रतिपाद्य अर्थ तो धर्म है और धर्मीवचन का प्रतिपाद्य अर्थ धर्मी है। ऐसी हालत में दोनों का प्रतिपाद्य अर्थ भिन्न-भिन्न होने से धर्मीरूप लक्ष्यवचन और धर्मरूपलक्षण वचन में एकार्थप्रतिपादकत्व रूप सामानाधिकरण्य सम्भव नहीं है और इसलिए उक्तप्रकार का लक्षण करने में शब्दसामानाधिकरण्याभाव प्रयुक्त असम्भव दोष आता है। अव्याप्ति दोष भी इस लक्षण में आता है। दण्डादि असाधारण धर्म नहीं है, फिर भी वे पुरुष के लक्षण होते हैं। अग्नि की उष्णता, जीव का ज्ञान आदि जैसे अपने लक्ष्य में मिले हुए होते हैं, इसलिए वे उनके असाधारण धर्म कहे जाते हैं। वैसे दण्डादि पुरुष में मिले हुए नहीं हैं - उससे पृथक् हैं और इसलिए पुरुष के असाधारण धर्म नहीं हैं। इस प्रकार लक्षण रूप लक्ष्य के एकदेश अनात्मभूत दण्डादि लक्षण में असाधारण धर्म के न रहने से लक्षण (असाधारणधर्म) अव्याप्त है। इतना ही नहीं, इस लक्षण में अतिव्याप्ति दोष भी आता है।शावलेयत्वादि रूप असाधारण धर्म अव्याप्त नाम का लक्षणाभास भी है। इसका खुलासा निम्नप्रकार है - मिथ्या अर्थात् सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं। उसके तीन भेद हैं-1. अव्याप्त, 2. अतिव्याप्त, 3. असम्भव / लक्ष्य के एकदेश में लक्षण के रहने को अव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे गाय का शावलेयत्व। शावलेयत्व सब गायों में नहीं पाया जाता, वह कुछ ही गायों का धर्म है, इसलिए अव्याप्त है। लक्ष्य और अलक्ष्य में लक्षण के रहने को अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे गाय का ही पशुत्व (पशुपना) लक्षण करना। यह पशुत्व गायों के सिवाय अश्वादि पशुओं में भी पाया जाता है इसलिए पशुत्व अतिव्याप्त है। जिसकी लक्ष्य में वृत्ति बाधित हो अर्थात् जो लक्ष्य में बिल्कुल ही नहीं रहता है वह असम्भवलक्षणाभास है। जैसे मनुष्य का लक्षण सींग। सींग किसी 196