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________________ परिशिष्ट-3 कुछ विशेष निबन्ध 1. असाधारण धर्मवचन के लक्षणत्व का निर्णय असाधारण धर्म के कथन करने को लक्षण कहते हैं, ऐसा किन्हीं नैयायिक और हेमचन्द्राचार्य का कहना है, पर वह ठीक नहीं है, क्योंकि लक्ष्य रूप धर्मी वचन का लक्षण रूप धर्म वचन के साथ सामानाधिकरण्य( शब्द सामानाधिकरण्य)के अभाव का प्रसंग आता है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार यदि असाधारण धर्म को लक्षण का स्वरूप माना जाता तो लक्ष्यवचन और लक्षणवचन में सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता। यह नियम है कि लक्ष्यलक्षणभावस्थल में लक्ष्यवचन में एकार्थ प्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य अवश्य होता है। जैसे ज्ञानी जीवः अथवा सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् इनमें शब्द सामानाधिकरण्य है। यहाँ जीवः लक्ष्य वचन है, क्योंकि जीव का लक्षण किया जा रहा है। और ज्ञानी लक्षण वचन है, क्योंकि वह जीव को अन्य अजीवादि पदार्थों से व्यावृत्त करता है। ज्ञानवान् जीव है, इसमें किसी को विवाद नहीं है। अब यहाँ देखेंगे कि जीव शब्द का जो अर्थ है, वही ज्ञानी शब्द का अर्थ है और जो ज्ञानी शब्द का अर्थ है वही जीव शब्द का है। अतः दोनों का वाच्यार्थ एक है। जिन दो शब्दों-पदों का वाच्यार्थ एक होता है, उसमें शब्द सामानाधिकरण्य होता है। जैसे नीलं कमलम् यहाँ स्पष्ट है। इस तरह ज्ञानी लक्षण वचन में और जीव लक्ष्यवचन में एकार्थप्रतिपादकत्व रूप शब्द सामानाधिकरण्य सिद्ध है। इसी प्रकार सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् यहाँ भी जानना चाहिए। इस प्रकार जहाँ कहीं भी निर्दोष लक्ष्यलक्षणभाव किया जावेगा वहाँ सब जगह शब्दसामानाधिकरण्य पाया जायेगा। इस नियम के अनुसार असाधारण धर्मवचनं लक्षणम् यहाँ असाधारण धर्म जब लक्षण होगा तो लक्ष्य धर्मी होगा और लक्षण वचन धर्मवचन तथा लक्ष्यवचन धर्मीवचन माना जायेगा, किन्तु 195
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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