________________ सन्देह नहीं होना चाहिए। पर सन्देह अवश्य होता है कि मुझको जो जल का ज्ञान हुआ है वह जल है या बालू का ढेर? इस सन्देह के बाद ही कमलों की गन्ध, ठण्डी हवा के आने आदि से जिज्ञासु पुरुष निश्चय करता है कि मुझे जो पहले जल का ज्ञान हुआ है वह प्रमाण है, सच्चा है, क्योंकि जल के बिना कमल की गन्ध आदि नहीं आ सकती है। अतः निश्चय हुआ कि अपरिचित दशा में प्रामाण्य का निर्णय पर से ही होता है। 3. यौगाभिमत सन्निकर्ष के प्रत्यक्षता का निराकरण नैयायिक और वैशेषिक सन्निकर्ष (इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध) को प्रत्यक्ष मानते हैं। पर वह ठीक नहीं है क्योंकि सन्निकर्ष अचेतन है, वह प्रमिति के प्रति करण कैसे हो सकता है? प्रमिति के प्रति जब करण नहीं, तब प्रमाण कैसे? और जब प्रमाण ही नहीं तो प्रत्यक्ष कैसे? दूसरी बात यह है कि चक्षु इन्द्रिय 'रूप का' ज्ञान सन्निकर्ष के बिना ही करता है, क्योंकि वह अप्राप्यकारी है। इसलिए सन्निकर्ष के अभाव में भी प्रत्यक्ष ज्ञान होने से प्रत्यक्ष में सन्निकर्ष रूपता ही नहीं है। चक्षु इन्द्रिय को जो यहाँ अप्राप्यकारी कहा गया है, वह असिद्ध नहीं है। कारण, प्रत्यक्ष से चक्षु इन्द्रिय में अप्राप्यकारिता ही प्रतीत होती है। शंका - यद्यपि चक्षु इन्द्रिय की प्राप्यकारिता (पदार्थ को प्राप्य करके प्रकाशित करना) प्रत्यक्ष से मालूम नहीं होती तथापि उसे परमाणु की तरह अनुमान से सिद्ध करेंगे। जिस परमाणु प्रत्यक्ष से सिद्ध न होने पर भी ‘परमाणु' है क्योंकि स्कन्धादि कार्य अन्यथा नहीं हो सकते इस अनुमान से उसकी सिद्धि होती है, उसी प्रकार चक्षु इन्द्रिय पदार्थ को प्राप्त करके प्रकाश करने वाली है, क्योंकि वह बहिरिन्द्रिय है। (बाहर से देखी जाने वाली इन्द्रिय है) जो बहिरिन्द्रय है, वह पदार्थ को प्राप्त करके ही प्रकाश करती है, जैसे स्पर्शन इन्द्रिय इस अनुमान से चक्षु में प्राप्यकारिता की सिद्धि होती है और प्राप्यकारिता ही सन्निकर्ष है। अतः चक्षु इन्द्रिय में सन्निकर्ष की अव्याप्ति नहीं है। अर्थात् चक्षु इन्द्रिय भी सन्निकर्ष के होने पर ही रूप ज्ञान कराती है। इसलिए सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष मानने में कोई दोष नहीं है। 198