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________________ की विशेषता (समग्रता) से दूर हो गये हैं, समस्त आवरण जिसके ऐसे अतीन्द्रिय और पूर्णरूप से विशदज्ञान को मुख्यप्रत्यक्ष कहते हैं। 14. प्रत्यक्षाभास - अविशद ज्ञान को प्रत्यक्ष मानना प्रत्यक्षाभास है। जैसे बौद्धाभिमत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष प्रत्यक्षाभास है। 15. वैशद्य - अन्य ज्ञान के व्यवधान से रहित प्रतिभास को अथवा वर्ण, संस्थान (आकार) आदि की विशेषता को लिए हुए प्रतिभास को वैशद्य कहते हैं। 16. योग्यता - अपने आवरण (ज्ञानावरण)के क्षयोपशम को योग्यता कहते हैं। इसी योग्यता के द्वारा ज्ञान प्रतिनियत अर्थ की व्यवस्था करता है। अर्थात् घटादि पदार्थों को जानता है। 17. केशोण्डुक - केशोण्डुक रूप अर्थ के अभाव में होने वाले केशोण्डुक रूप अर्थ के ज्ञान को केशोण्डुकज्ञान कहते हैं। 18. परोक्ष - अविशद ज्ञान को परोक्ष कहते हैं। यह ज्ञान प्रत्यक्ष से भिन्न अर्थात् अविशद होता है। 19. परोक्षाभास - विशद ज्ञान को परोक्ष मानना परोक्षाभास है। मीमांसक करणज्ञान (प्रमिति का साधकतम ज्ञान) को परोक्ष मानते हैं। उनका वैसा मानना परोक्षाभास है, क्योंकि करणज्ञान विशद होता है। 20. स्मृति - धारणा रूप संस्कार के उद्बोध (प्रकट होना) से होने वाले तथा तत् (वह) इस प्रकार के आकार वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं। जैसे वह देवदत्त है। स्मरणाभास - जिसका कभी अनुभव (प्रत्यक्ष) नहीं हुआ है, उसमें वह इस प्रकार के ज्ञान के होने को स्मरणाभास कहते हैं। जैसे जिनदत्त में वह देवदत्त ऐसा स्मरण करना स्मरणाभास है। 22. प्रत्यभिज्ञान - वर्तमान पर्याय का प्रत्यक्ष और पूर्व पर्याय का स्मरण होने से दोनों पर्यायों (अवस्थाओं) का संकलन रूप (एकत्व, सादृश्य आदि के ग्रहण रूप) जो ज्ञान होता है, उसे प्रत्यभिज्ञान कहते है। जैसे - यह वही देवदत्त है, जिसे एक वर्ष पहले देखा था। 21. 189
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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