________________ रहते हैं तो वे वादी के लिए साधन और साधनाभास हैं और प्रतिवादी के लिए दूषण और भूषण हैं। इस सूत्र का अभिप्राय यह है कि वाद के समय वादी ने पहले प्रमाण को उपस्थित किया, प्रतिवादी के दोष बतलाकर उसका उद्भावन कर दिया। पुनः वादी ने उस दोष का परिहार कर दिया तो वादी के लिए वह साधन हो जायेगा और प्रतिवादी के लिए दूषण हो जायेगा। इसी प्रकार जब वादी ने प्रमाणाभास कहा प्रतिवादी ने दोष बतलाकर उसका उद्भावन कर दिया। तब यदि वादी उसका परिहार नहीं कर पाया, तो वह वादी के लिए साधनाभास हो जायेगा और प्रतिवादी के लिए भूषण हो जायेगा। 288. वादी किसे कहते हैं ? शास्त्रार्थ के समय जो अपना पक्ष रखता है, वह वादी है। 289. प्रतिवादी किसे कहते हैं ? जो वादी का प्रतिवाद करता है, वह प्रतिवादी कहलाता है। 290. शास्त्रार्थ में जीत एवं हार किसकी होती है ? जो अपने पक्ष पर आए हुए दूषणों का परिहार करके अपने पक्ष को सिद्ध कर देता है, शास्त्रार्थ में उसकी जीत होती है और जो वैसा नहीं कर पाता उसकी हार होती है। 291. प्रमाण और प्रमाणाभास को जानने का फल क्या है ? अपने पक्ष को सिद्ध कर लेना और पर पक्ष में दूषण दे लेना यही प्रमाण और प्रमाणाभास का फल है। अब उक्त प्रकार से समस्त विप्रतिपत्तियों के निराकरण द्वारा स्वप्रतिज्ञात प्रमाण तत्त्व की परीक्षा कर अन्य ग्रन्थों में नयादि तत्त्व कहे गए हैं, इस बात को दिखलाते हुए अंतिम सूत्र कहते हैं - संभवदन्यद्विचारणीयम्॥ 74 // सूत्रान्वय : संभवत् = संभव, अन्यत् = अन्य (नय निक्षेपादि) विचारणीयम् = विचारणीय हैं। सूत्रार्थ : संभव अन्य (नय-निक्षेपादि) भी विचारणीय है। 177