________________ सूत्रान्वय : समवाये = समवाय में, अतिप्रसंग = अतिप्रसंग का दोष। सूत्रार्थ : समवाय के मानने पर अतिप्रसंग का दोष आता है। संस्कृतार्थ : नैयायिकानां कथनं विद्यते यद् यत्रात्मनि प्रमाणं समवाय सम्बन्धेनावतिष्ठेत् तत्रैव फलमपि समवायसंबंधेनावतिष्ठेत् / तदास्य प्रमाणस्येदं फलमिति व्यवस्था समवाय सम्बन्धेन भवेत् / अत्र सूत्रे तेषामस्या एवाशंकाया निषेधो विहितः यद् युष्माभिः बौद्धैः समवायो नित्यो व्यापकश्च मतः / तेनायं निर्णयः कथं भवेत् यदत्रैवात्मनि एतत्फलं समवाय सम्बन्धेनावतिष्ठते नान्यत्र / टीकार्थ : नैयायिकों का ऐसा कथन है, जो जिस आत्मा में प्रमाण समवाय सम्बन्ध से स्थित है, उसमें ही फल भी समवाय सम्बन्ध से स्थित है। इस प्रमाण का यह फल है, इस प्रकार की व्यवस्था समवाय सम्बन्ध से होती है। इस सूत्र में उन नैयायिकों की इस प्रकार की ही शंका का निषेध किया गया है, जो तुम बौद्धों के द्वारा समवाय नित्य और व्यापक पदार्थ माना गया है, इससे यह निर्णय कैसे होगा, इसी आत्मा में यह प्रमाण अथवा फल समवाय सम्बन्ध से रहता है, दूसरे आत्मा में नहीं। विशेषार्थ : समवाय के नित्य तथा व्यापक होने से वह सभी आत्माओं में समान धर्मरूप से रहेगा। अतः यह फल इसी प्रमाण का है, अन्य का नहीं है। इस प्रकार के प्रतिनियत नियम का अभाव होगा। अब अपने पक्ष के साधन और परपक्ष के दूषण व्यवस्था को दर्शाते हैंप्रमाणतदाभासौ दुष्टतयोद्भावितौ परिहृतापरिहृतदोषौ वादिनः __साधनतदाभासौ प्रतिवादिनो दूषणभूषणे च॥ 73 // सूत्रान्वय : प्रमाण = प्रमाण, तदाभासौ = तदाभास, दुष्टतयोद्भावितौ = दोष रूप में प्रकट किये जाने पर, परिहृतदौष = परिहार दोष वाले, अपरिहतदोष = अपरिहार दोष वाले, वादिनः = वादी के द्वारा, साधन तदाभासौ = साधन और साधनाभास, प्रतिवादिनः = प्रतिवादी के लिए, दूषण भूषणे च = दूषण और भूषण है। सूत्रार्थ : वादी के द्वारा प्रयोग में लाए गए प्रमाण और प्रमाणाभास प्रतिवादी के द्वारा दोष रूप में प्रकट किये जाने पर वादी से परिहार दोष लिए 176