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________________ एकान्तरूपेणाभेदो नो वर्तते। टीकार्थ : इसलिए प्रमाण और प्रमाण के फल में वास्तविक भेद है एकान्त रूप से अभेद ही नहीं है। विशेषार्थ : कल्पना से प्रमाण और फल का भेद नहीं मानना चाहिए, किन्तु वास्तविक भेद ही मानना चाहिए, अन्यथा प्रमाण और फल का व्यवहार नहीं बन सकता है। अब आचार्य भगवन् नैयायिकों के द्वारा माने गए सर्वथा भेदपक्ष में दूषण देते हुए उत्तरसूत्र कहते हैं - भेदेत्वात्मान्तरवत्तदनुपपत्तेः॥ 71 / सूत्रान्वय : भेदे = भेद में, तु = तो, आत्मान्तरवत् = अन्य आत्मा के समान, तत् = वह (प्रमाण और प्रमाणफल) अनुपपत्तेः = हो नहीं सकता। सूत्रार्थ : भेद मानने पर अन्य आत्मा के समान यह इस प्रमाण का फल है ऐसा व्यवहार हो नहीं सकता है। संस्कृतार्थ : प्रमाणात् फलस्य सर्वथा भिन्नत्वाङ्गीकारेऽयं दोषः समायाति यद्यथा अन्यात्मप्रमाणफलं तथैव निजात्मप्रमाणफलम् उभे एव सदृशे भवेताम्। पुनश्च तत्फलं मदीय प्रमाणस्य विद्यते नान्यदीयप्रमाणस्येति कथं निश्चीयेत। निष्कर्षश्चायं यद्यथान्यात्म प्रमाणफलमस्मदीयात्मप्रमाणफलं नो भवेत् तथा सर्वथा भेदे मदीयात्मप्रमाणफलमपि मदीयं नो व्यावयेत्। टीकार्थ : प्रमाण को फल से सर्वथा भिन्न मानने में यह दोष आता है कि जिस तरह आत्मा के प्रमाण का फल उस ही प्रकार हमारे आत्मा के प्रमाण का फल दोनों सदृश हो जावेंगे। फिर वह फल हमारे प्रमाण का और दूसरे के आत्मा के प्रमाण का नहीं यह कैसे व्यवस्थित होगा ? इसका निष्कर्ष यह है कि जैसे-दूसरे आत्मा के प्रमाण का फल हमारा नहीं कहलाता उसी प्रकार हमारे आत्मा के प्रमाण का फल भी हमारा नहीं कहलायेगा। अब नैयायिक लोग प्रमाण और प्रमाण के फल को समवाय सम्बन्ध से मानते हैं, इस प्रकार समवाय से मानने पर आचार्य दोष देते हैं - समवायेऽति प्रसंगः॥72॥ 175
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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