________________ प्रसङ्गात्। टीकार्थ : फलाभाव की व्यावृत्ति होने पर भी फल की कल्पना संभव नहीं है दूसरे जाति वाले फल की व्यावृत्ति से अफल की कल्पना क्यों न हो जायेगी ? इसलिए कल्पना मात्र से फल का व्यवहार नहीं हो सकता। विशेषार्थ : सूत्र का अभिप्राय यह है कि जैसे फल का विजातीय जो अफल उसकी व्यावृत्ति से आप बौद्ध लोग फल का व्यवहार करते हैं, उसी प्रकार फलान्तर अर्थात् जो सजातीय फल है, उसकी व्यावृत्ति से अफलपने का प्रसंग आता है। अब आचार्य दूसरे अभेद पक्ष में दृष्टान्त देते हैं - प्रमाणान्तरात् व्यावृत्यावाप्रमाणत्वस्य॥ 69 // सूत्रान्वय : प्रमाणान्तरात् = प्रमाणान्तर से, व्यावृत्त्या = निराकरण करने से, एव = ही, अप्रमाणत्वस्य = अप्रमाणपने का। सूत्रार्थ : अन्य प्रमाण की (प्रमाणान्तर) व्यावृत्ति (निराकरण) से अप्रमाणपने का प्रसंग आता है। संस्कृतार्थ : यथा प्रमाणान्तरव्यावृत्त्या अप्रमाणत्वस्य प्रसंगबौद्धैरङ्गी कृतस्तथैव फलान्तरव्यावृत्त्या अफलत्वस्य प्रसङ्गः आगच्छेत्। टीकार्थ : जैसे प्रमाणान्तर की व्यावृत्ति से अप्रमाणपने का प्रसंग बौद्धौं ने स्वीकृत किया है, उसी प्रकार ही फलान्तर की व्यावृत्ति से अफलत्व का प्रसंग आ जावेगा। विशेषार्थ : अन्य प्रमाण की व्यावृत्ति से जैसे प्रमाण के अप्रमाणपने का प्रसंग आता है, उसी प्रकार यहाँ भी पहले वाली प्रक्रिया लगानी चाहिए (विशेष प्रमेयरत्नमाला में देखें) अब अभेदपक्ष का निराकरण कर आचार्य उपसंहार कहते हैं - तस्माद्वास्तवो भेदः // 70 // सूत्रान्वय : तस्मात् = इसलिए, वास्तवः = वास्तविक, भेदः = भेद है। सूत्रार्थ : इसलिए प्रमाण और फल में परमार्थ से भेद है। संस्कृतार्थ : अतः प्रमाणे तत्फले वा भेदो वास्तवो विद्यते, 174