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________________ अब दोनों पक्षों में फलाभास कैसे है तो प्रथम सर्वथा अभिन्न पक्ष में फलाभास बतलाते हैं - अभेदे तद्व्यवहारानुपपत्तेः॥ 67 // सूत्रान्वय : अभेदे = अभेद में, तत् = वह, (प्रमाण और प्रमाणफल) व्यवहार = कथन, अनुपपत्तेः = नहीं बन सकेगा। सूत्रार्थ : प्रमाण से फल सर्वथा अभिन्न माना जाए तो प्रमाण और प्रमाण के फल में व्यवहार ही नहीं हो सकता है। संस्कृतार्थ : ननु प्रमाणात्सर्वथा अभिन्नस्य फलस्य कथं फलाभासता इति न शंकनीयं, फलस्य सर्वथा अभिन्नत्वाभ्युपमगे इदम् प्रमाणम् इदञ्चास्य प्रमाणस्य फलम् इति व्यवहारस्यानुत्पत्तेः / टीकार्थ : कोई कहता है कि प्रमाण से फल सर्वथा अभिन्न है तो फलाभास कैसे हुआ, इस प्रकार की शंका नहीं करना चाहिए, फल के सर्वथा अभिन्नपना स्वीकार करने पर यह प्रमाण है और यह इसका फल है, इसी प्रकार के व्यवहार की उत्पत्ति नहीं बन सकेगी। विशेषार्थ : कहने का भाव यह है कि या तो फल ही रहेगा, अथवा प्रमाण ही रहेगा ? दोनों नहीं रह सकेंगे। अब कल्पना से प्रमाण और फल का व्यवहार करने में आपत्तिव्यावृत्त्यापि न तत्कल्पना फलान्तराद् व्यावृत्याऽफलत्व प्रसंगात्॥ 68 // सूत्रान्वय : व्यावृत्त्यापि = भिन्न होने पर भी, न = नहीं तत् = फल की, कल्पना = कल्पित करना, फलान्तरात् = अन्य फल की, व्यावृत्त्या = निराकरण होने से, अफलत्वं = अफलपने का, प्रसंगात् = प्रसंग होने से। सूत्रार्थ : अफल की व्यावृत्ति से भी फल की कल्पना नहीं की जा सकती अन्यथा फलान्तर का व्यावृत्ति से अफलपने की कल्पना का प्रसंग आ जायेगा। __संस्कृतार्थ : फलाभावस्य व्यावृत्त्यापि फलस्य कल्पना नो संभवेत् फलाभावव्यावृत्या फलकल्पनेव सजातीयफलव्यावृत्याऽफल कल्पनायाः 173
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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