SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 174
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विशेषार्थ : सहकारी कारणों की वियुक्त अवस्था में कार्य नहीं करने वाले और सहकारी कारणों के सन्निधान के समय कार्य करने वाले पदार्थ के पूर्व आकार का परित्याग उत्तर आकार का उपादान और स्थिति लक्षण परिणाम के संभव होने से परिणामीपना सिद्ध होता है। यदि ऐसा न माना जाए तो कार्य करने का अभाव रहेगा। जैसे - प्राग्भावदशा में कार्य का अभाव था। अब आचार्य असमर्थ रूप दूसरे पक्ष में दोष कहते हैं - .. स्वयमसमर्थस्याकारकत्वात् पूर्ववत्॥ 65 // . सूत्रान्वय : स्वयम् = आप ही, असमर्थस्य = असमर्थ के, आकारत्वात् = कार्य करने वाला न होने से, पूर्ववत् = प्रथम पक्ष के समान। सूत्रार्थ : आप ही असमर्थ के पूर्व के समान (प्रथम पक्ष के समान) कार्य करने वाला न होने से। संस्कृतार्थ : स्वयमसमर्थेन तत्त्वेन कार्योत्पत्तिस्तु बन्ध्यासुतवत् असंभवैव। तस्मात् सामान्यविशेषात्मक पदार्थ एव प्रमाण गोचरो भवति, शेष च विषयाभास इति। ___टीकार्थ : स्वयं असमर्थ पदार्थ के कार्य की उत्पत्ति मानी जाए तो वह बन्ध्या के पुत्र के समान असंभव ही है। इसलिए सामान्य विशेषात्मक पदार्थ ही प्रमाण का विषय होता है। और शेष विषयाभास है। अब फलाभास का वर्णन करते हैं - फलाभास: प्रमाणादभिन्न भिन्नमेव वा॥ 66 // सूत्रान्वय : फलाभासः = फलाभास, प्रमाणात् = प्रमाण से, अभिन्नं = अभिन्न, भिन्नं = भिन्न, एव = ही, वा = अथवा। सूत्रार्थ : प्रमाण से उसके फल को सर्वथा अभिन्न तथा भिन्न मानना फलाभास है। संस्कृतार्थ : प्रमाणात् सर्वथा अभिन्नमथवा सर्वथा भिन्नं फलम् फलाभासः कथ्यते। टीकार्थ : प्रमाण से सर्वथा अभिन्न अथवा सर्वथा भिन्न प्रमाण के फल को मानना फलाभास कहा जाता है। 172
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy