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________________ कार्य की उत्पत्ति का प्रसंग आता है। संस्कृतार्थ : किञ्च तदेकान्तात्मकं तत्त्वं स्वयं समर्थमसमर्थं वा कार्यकारी स्यात् ? तत्र समर्थत्वे किं निरपेक्षं कार्यं कुर्यात् सापेक्षम् वा ? न तावत्प्रथमः पक्षः। निरपेक्षस्य समर्थतत्त्वस्य कार्यजनकत्वे सर्वदा कार्योत्पत्ति प्रसङ्गस्य दुर्निवारत्वात्। टीकार्थ : यदि और कहे कि वह एकान्तात्मकृततत्वं स्वयं समर्थ अथवा असमर्थ होकर कार्यकारी होता है यह है ? उसमें समर्थ होता हुआ क्या कार्य को निरपेक्ष होकर करता है, अथवा सापेक्ष होकर ? प्रथम पक्ष तो आपके यहाँ बनता नहीं है, क्योंकि निरपेक्ष समर्थतत्व के कार्य को उत्पन्न करने वाला मानते हो तो हमेशा कार्योत्पत्ति का प्रसंग आता है, जिसका निराकरण करना कठिन है। अब यदि कहा जाए कि वह पदार्थ सहकारी कारणों के सान्निध्य में उस कार्य को करता है, अतः कार्य की सदा उत्पत्ति नहीं होती है तो आचार्य भगवन् कहते हैं - परापेक्षणे परिणामित्वमन्यथा तदभावात्।। 64 // सूत्रान्वय : परापेक्षणे = दूसरे सहकारी की अपेक्षा से, परिणामित्वम् = परिणामीपना है, अन्यथा = अन्यथा, तत् = उस (कार्य का), अभावात् = अभाव होने से। सूत्रार्थ : दूसरे सहकारी कारणों की अपेक्षा रखने पर परिणामीपना प्राप्त होता है, अन्यथा कार्य नहीं हो सकता है। संस्कृतार्थ : नापि द्वितीयः पक्षः। सापेक्षसमर्थतत्त्वस्य कार्य जनकत्वाभ्युपगमे परिणामित्वप्रसंगात्, सामान्यविशेषात्मकत्वसिद्धेः, एकतत्त्वस्य परिणामित्वाभावे कार्यजनकत्वायोगात्। टीकार्थ : द्वितीय पक्ष भी ठीक नहीं है, सापेक्ष समर्थ पदार्थ के कार्य करने वाला स्वीकार करने पर परिणामीपने का प्रसंग होता है, सामान्यविशेषात्मकपने की सिद्धि होती है, एक पदार्थ के परिणामीपने का अभाव होने पर कार्य को करने वाले का अयोग होने से। 171
SR No.007147
Book TitleParikshamukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandi Aacharya, Vivekanandsagar, Sandip
PublisherAnekant Gyanmandir Shodh Samsthan
Publication Year2011
Total Pages22
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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