________________ को स्वतंत्र रूप से एक-एक को प्रमाण का विषय रूप से स्वीकार करने वाला प्रमाण विषयाभास कहा जाता है। विशेषार्थ : सांख्य सामान्य मात्र (द्रव्य) को ही प्रमाण मानता है। बौद्ध विशेष रूप केवल (पर्याय) को ही प्रमाण का विषय कहते हैं। नैयायिक और वैशेषिक सामान्य विशेषात्मक हैं, यह पहले ही सिद्ध किया जा चुका है। अब उन सांख्यादिको की मान्यताएँ विषयाभास कैसे हैं, आचार्य इस आशंका के निराकरण करने के लिए उत्तरसूत्र कहते हैं - तथाऽप्रतिभासनात् कार्याकरणाच्च॥ 62 // सूत्रान्वय : तथा = उसी प्रकार, अप्रतिभासनात् = अप्रतिभास होने से, कार्य = कार्य को, अकरणात् = न करने वाला होने से, च = और। सूत्रार्थ : उस प्रकार का प्रतिभास न होने से और कार्य को नहीं करने से। संस्कृतार्थ : सांख्याभिमतं सामान्यतत्वं, सौगताभिमतं विशेषतत्वं, यौगाभिमतं परस्पर निरपेक्षसामान्यविशेषरूपतत्त्वञ्च विषयाभासो भवति तथा प्रतिभासनाभावात् अर्थक्रियाकारित्वाभावाच्च / ___ टीकार्थ : सांख्यों के द्वारा स्वीकृत सामान्यतत्त्व को, बौद्धों के द्वारा स्वीकृत विशेष तत्त्व को, यौगों के द्वारा स्वीकृत परस्पर निरक्षेप सामान्य और विशेषरूप तत्त्व विषयाभास होता है। उसी प्रकार प्रतिभास का अभाव होने से अर्थक्रियाकारीपने का भी अभाव होता है। अब कोई कहे कि वे एकान्तरूप पदार्थ अपना कार्य कर सकते हैं तो आचार्य भगवन् उनसे पूछते हैं कि वह एकान्तात्मकृततत्व स्वयं समर्थ होते हुए अपना कार्य करेगा। अथवा असमर्थ रहते हुए। प्रथम पक्ष में दूषण देते हैं - समर्थस्य करणे सर्वदोत्पत्तिरनपेक्षत्वात्॥ 63 // सूत्रान्वय : समर्थस्य = समर्थ के, करणे = कार्य करने पर, सर्वदा = हमेशा, उत्पत्तिः = उत्पन्न, अनपेक्षत्वात् = अपेक्षा न होने से। सूत्रार्थ : समर्थ पदार्थ के कार्य करने पर अपेक्षा न होने से हमेशा 170