________________ अब पूर्वोक्त कथन की पुष्टि करते हुए आचार्य कहते हैं - प्रतिभासस्य च भेदकत्वात्॥ 60 // सूत्रान्वय : प्रतिभासस्य = प्रतिभास का, च = और, भेदकत्वात् = भेदक होने से। सूत्रार्थ : प्रतिभास का भेद ही प्रमाणों का भेदक होता है। संस्कृतार्थ : किञ्च वस्तुस्वरूपप्रतिभासभेदः एव प्रमाणभेदान् व्यवस्थापयति / यथा स्पष्टप्रतिभासः प्रत्यक्षम् अस्पष्टप्रतिभासश्च परोक्षं कथ्यते, तथा व्याप्तिरूपः प्रतिभासः तर्को निगद्यते। एवञ्च तर्क प्रमाणेऽङ्गीकृते चार्वाकादीनामङ्गीकृतप्रमाणसंख्यायाव्याघातोऽनिवार्यो भवेत्। अतस्तत्स्वीकृत प्रमाणसंख्यायाः प्रमाणसंख्याभासत्वमनिवार्यं जायेत। टीकार्थ : कोई और कहता है वस्तु स्वरूप के प्रतिभास का भेद ही प्रमाण के भेदों की व्यवस्था करता है। जैसे - स्पष्ट प्रतिभास को प्रत्यक्ष कहते हैं। अस्पष्ट प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं, उसी प्रकार व्याप्तिरूप प्रतिभास को तर्क कहते हैं और इस प्रकार तर्क प्रमाण को स्वीकार करने पर चार्वाक आदि के द्वारा स्वीकृत प्रमाणसंख्या का व्याघात होता है, अवश्य ही। इसलिए सौगतादि के द्वारा स्वीकृत प्रमाण संख्या में प्रमाण संख्याभासपना अनिवार्य ही होता है। अब विषयाभास का स्वरूप कहते हैं - विषयाभासः सामान्यं विशेषो द्वयं वा स्वतन्त्रम्॥ 61 // सूत्रान्वय : विषयाभासः = विषयाभास, सामान्यं = केवल सामान्य, विशेषः = केवल विशेष, वा = अथवा, द्वयं = सामान्य विशेष को, स्वतंत्रम् = स्वतंत्र मानना। सूत्रार्थ : केवलसामान्य को, केवल विशेष को अथवा स्वतंत्र दोनों को प्रमाण का विषय मानना विषयाभास है। संस्कृतार्थ : सामान्यमात्रस्य, विशेषमात्रस्य, स्वतंत्रस्य स्वतंत्रस्य द्वयस्य वा प्रमाणविषयत्वेनाङ्गीकरणं प्रमाणविषयाभासः प्रोच्यते। टीकार्थ : सामान्यमात्र को, विशेषमात्र को, अथवा दोनों रूप पदार्थ 169